भारत का सिक्का निर्माण पहली सहस्राब्दी ईसा पूर्व से छठी शताब्दी ईसा पूर्व के बीच कहीं भी शुरू हुआ, और इसके प्रारंभिक चरण में मुख्य रूप से तांबे और चांदी के सिक्के शामिल थे। [1] इस काल के सिक्के कर्षपण या पण थे। शुरुआती भारतीय सिक्कों की एक किस्म, हालांकि, पश्चिम एशिया में परिचालित लोगों के विपरीत, धातु की छड़ों पर मुहर लगाई गई थी, यह सुझाव देते हुए कि मुद्रांकित मुद्रा का नवाचार टोकन मुद्रा के पहले से मौजूद रूप में जोड़ा गया था जो पहले से ही मुद्रा में मौजूद था। प्रारंभिक ऐतिहासिक भारत के जनपद और महाजनपद राज्य । जिन राज्यों ने अपने सिक्के ढाले उनमें शामिल हैंगांधार , कुंतला , कुरु , मगध , पांचाल , शाक्य , सुरसेन , सौराष्ट्र और विदर्भ आदि।
प्रागैतिहासिक और कांस्य युग की उत्पत्ति
कौड़ी के गोले का उपयोग पहली बार भारत में कमोडिटी मनी के रूप में किया गया था। सिंधु घाटी सभ्यता ने व्यापार गतिविधियों के लिए चांदी जैसे निश्चित वजन की धातुओं का उपयोग किया हो सकता है, जो हड़प्पा काल (दिनांक 1900-1800 ईसा पूर्व या 1750 ईसा पूर्व) के मोहनजोदड़ो के डीके क्षेत्र से स्पष्ट है।
वैदिक काल से विनिमय के लिए कीमती धातु की गणना योग्य इकाइयों का उपयोग किए जाने के प्रमाण हैं। ऋग्वेद में निष्क शब्द इसी अर्थ में प्रकट हुआ है। बाद के ग्रंथ सोने के पादों से सुशोभित उपहार के रूप में दी गई गायों की बात करते हैं। एक पाद , शाब्दिक रूप से एक चौथाई, कुछ मानक भार का एक चौथाई होता। शतमान नामक एक इकाई, शाब्दिक रूप से एक ‘सौ मानक’, जो 100 कृष्णों का प्रतिनिधित्व करती है, का उल्लेख शतपथ ब्राह्मण में किया गया है । कात्यायन श्रौतसूत्र की एक बाद की व्याख्या बताती है कि एक शतमान 100 रत्ती भी हो सकता है ।. इन सभी इकाइयों को किसी न किसी रूप में स्वर्ण मुद्रा के रूप में संदर्भित किया जाता था लेकिन बाद में इन्हें चांदी की मुद्रा के रूप में अपनाया गया।
कौड़ी के गोले का उपयोग पहली बार भारत में कमोडिटी मनी के रूप में किया गया था। सिंधु घाटी सभ्यता ने व्यापार गतिविधियों के लिए चांदी जैसे निश्चित वजन की धातुओं का उपयोग किया हो सकता है, जो हड़प्पा काल (दिनांक 1900-1800 ईसा पूर्व या 1750 ईसा पूर्व) के मोहनजोदड़ो के डीके क्षेत्र से स्पष्ट है।
“पहले दक्षिण एशियाई सिक्के”, 400-300 ईसा पूर्व, ब्रिटिश संग्रहालय। ब्रिटिश संग्रहालय के अनुसार, दक्षिण एशिया में पहले सिक्के लगभग 400 ईसा पूर्व अफगानिस्तान में जारी किए गए थे, और फिर उपमहाद्वीप में फैल गए।
भारतीयरुपये ( INR ) के सिक्के पहली बार 1950 में ढाले गए थे। तब से हर साल नए सिक्कों का उत्पादन किया जाता रहा है और वे भारतीय मुद्रा प्रणाली का एक मूल्यवान पहलू बनाते हैं। आज चलन में चल रहे सिक्के एक रुपये, दो रुपये, पांच रुपये, दस रुपये और बीस रुपये के मूल्यवर्ग में मौजूद हैं। ये सभी कोलकाता, मुंबई, हैदराबाद, नोएडा में भारत भर में स्थित चार टकसालों द्वारा निर्मित हैं।
तांबे की चद्दर का वह टुकड़ा जिसपर प्राचीन काल में अक्षर खुदवाकर दानपत्र या प्रशस्ति-पत्र आदि लिखे जाते थे, वह ताम्रपत्र कहलाता था. राजाओं द्वारा लोगों को ताम्रपत्र दिए जाते थे।पल्लव वंश के राजाओं द्वारा 4थी शताब्दी में जारी की गई कुछ शुरुआती प्रमाणीकृत तांबे की प्लेटें प्राकृत और संस्कृत में हैं । प्रारंभिक संस्कृत शिलालेख का एक उदाहरण जिसमें कन्नड़ शब्दों का उपयोग भूमि सीमाओं का वर्णन करने के लिए किया जाता है, पश्चिमी गंगा राजवंश के तुंबुला शिलालेख हैं , जो 2004 के एक भारतीय समाचार पत्र की रिपोर्ट के अनुसार 444 तक के हैं। उत्तर भारत में गुप्तकाल की दुर्लभ ताम्रपत्रिकाएँ मिली हैं। ताम्रपत्र शिलालेखों का उपयोग बढ़ा और कई शताब्दियों तक वे कानूनी अभिलेखों के प्राथमिक स्रोत बने रहे। ताम्र-पत्र तांबेकीप्लेटोंपरशिलालेख थे । वे भारत के इतिहास के पुनर्निर्माण में महत्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं।
पल्लव वंश के राजाओं द्वारा 4थी शताब्दी में जारी की गई कुछ शुरुआती प्रमाणीकृत तांबे की प्लेटें प्राकृत और संस्कृत में हैं । प्रारंभिक संस्कृत शिलालेख का एक उदाहरण जिसमें कन्नड़ शब्दों का उपयोग भूमि सीमाओं का वर्णन करने के लिए किया जाता है, पश्चिमी गंगा राजवंश के तुंबुला शिलालेख हैं , जो 2004 के एक भारतीय समाचार पत्र की रिपोर्ट के अनुसार 444 तक के हैं। उत्तर भारत में गुप्तकाल की दुर्लभ ताम्रपत्रिकाएँ मिली हैं। ताम्रपत्र शिलालेखों का उपयोग बढ़ा और कई शताब्दियों तक वे कानूनी अभिलेखों के प्राथमिक स्रोत बने रहे।
भारतीय उपमहाद्वीप का सबसे पुराना ज्ञात ताम्र-प्लेट चार्टर तीसरी शताब्दी ई.पू. के आंध्र इक्ष्वाकु राजा एहुवाला चम्तामुला का पतागंडीगुडेम शिलालेख है। उत्तरी भारत का सबसे पुराना ज्ञात ताम्र-प्लेट चार्टर संभवतः ईश्वररता का कलाचल अनुदान है, जो पुरालेखीय आधार पर चौथी शताब्दी के उत्तरार्ध का है।
भारतीय उपमहाद्वीप का एक और पुराना ज्ञात ताम्र-प्लेट चार्टर तीसरी शताब्दी ई.पू. के आंध्र इक्ष्वाकु राजा एहुवाला चम्तामुला का पतागंडीगुडेम शिलालेख है। उत्तरी भारत का सबसे पुराना ज्ञात ताम्र-प्लेट चार्टर संभवतः ईश्वररता का कलाचल अनुदान है, जो पुरालेखीय आधार पर चौथी शताब्दी के उत्तरार्ध का है।
स्वतंत्रता सेनानियों के सम्मान में ताम्रपत्र प्रदान किए गए थे। पहला ताम्रपत्र समारोह 15 अगस्त, 1972 को दिल्ली के ऐतिहासिक लाल किले के दीवान-ए-आम में आयोजित किया गया था। इसी तरह के समारोह समय-समय पर राज्यों और केंद्र शासित प्रदेशों में आयोजित किए गए थे। picture मोज़े रिबा Moje Riba (1890-1982) एक भारतीय स्वतंत्रता सेनानी थे जिन्होंने भारतीय स्वतंत्रता आंदोलन में योगदान दिया और 15 अगस्त 1947 को स्वतंत्रता के बाद अरुणाचल प्रदेश में भारतीय राष्ट्रीय ध्वज फहराने वाले पहले व्यक्ति थे 15 अगस्त 1972 को, उन्हें भारत की तत्कालीन प्रधान मंत्री श्रीमती द्वारा ताम्र पत्र से सम्मानित किया गया था। स्वतंत्रता आंदोलन में उनके बलिदान और योगदान के लिए इंदिरा गांधी । 1982 को डारिंग गांव में उनके आवास पर उनका निधन हो गया।
आपातकाल के दौरान लोकतांत्रिक मूल्यों की बहाली के लिए संघर्ष करने वाले हरियाणा के 37 निवासियों को गणतंत्र दिवस समारोह के दौरान ‘ताम्र पत्र’ से सम्मानित किया गया था।
नेहरू शेख अब्दुल्ला द्वारा पैदा किये गये कश्मीर मसले को कर रहें हैं खत्म पीएम मोदी
केंद्र की मोदी सरकार ने 2014 में सत्ता में आने के बाद जिस मिशन कश्मीर और पूर्वोत्तर को धार दी, उसके पीछे पीएम मोदी के विजन के साथ ही सरदार वल्लभभाई पटेल के सिद्धांतों की प्रेरणा भी है। मोदी सरकार के इन कदमों से न सिर्फ जम्मू-कश्मीर में आतंकी घटनाओं में कमी और पर्यटकों की संख्या में रिकार्ड तेजी आई है, बल्कि पूर्वोत्तर में आठ हजार से ज्यादा उग्रवादियों ने हथियार डालकर शांति और अमन की राह पकड़ी है।
कश्मीर से अनुच्छेद 370 हटने से सरदार वल्लभभाई पटेल का सपना साकार हुआ है। इस कदम के बाद ही घाटी का भारत के साथ असल में एकीकरण हुआ। बिखरी रियासतों को एक सूत्र में पिरोने वाले, भारत की एकता और अखंडता के सूत्रधार सरदार वल्लभभाई पटेल ही थे।
सरदार पटेल न होते तो देश की 550 से ज्यादा रियासतें एकजुट होकर भारत में नहीं मिली होती। नरेंद्र मोदी ने कहा कि अगर भारत के पास सरदार पटेल जैसा नेतृत्व न होता तो क्या होता? अगर 550 से ज्यादा रियासतें एकजुट न हुई होती तो क्या होता? हमारे ज्यादातर राजा रजवाड़े त्याग की पराकाष्ठा न दिखाते, तो आज हम जैसा भारत देख रहे हैं हम उसकी कल्पना न कर पाते। कश्मीर से लेकर कन्याकुमारी और पूर्वोत्तर तक ये कार्य सरदार पटेल ने ही सिद्ध किए हैं।
गुजरात में पीएम मोदी ने कहा कि अतीत की तरह ही भारत के उत्थान से परेशान होने वाली ताकतें आज भी मौजूद हैं। जातियों के नाम हमें लड़ाने के लिए तरह-तरह के नरेटिव गढ़े जाते हैं। इतिहास को भी ऐसे पेश किया जाता हैं कि जिससे देश जुड़े नहीं। मोदी जी काकहना ठीक ही है। जनु के टुकड़े टुकड़े गैंग अब कांग्रेस में उसी प्रकार घुसपैठ बना चुके हैं जिस प्रकार १९६२ के बाद कम्युनिष्टों ने कांग्रेस में घुश पैठ की थी।
नरेन्द्र मोदी सरकार चीन के रूख को देखते हुए भारत के पूर्वोत्तर राज्यों पर पर्याप्त ध्यान दे रही है। पूर्वोत्तर पर्वतीय क्षेत्र विकास के लिये अनेकों योजनाएं लाई गई और यह क्रम निरंतर जारी है । इन योजनाओं से विशेषकर मणिपुर, त्रिपुरा और असम के पर्वतीय खेत्र लाभान्वित हुए हैं।
नरेन्द्र मोदी की सरकार की नीतियों के कारण ही पूर्वोत्तर में उग्रवादी गुटों के कारण हिंसा की आग से पूर्वोत्तर को बचाया जा सका। मोदी जी ने सशस्त्र गुटों से बातचीत की पहल शुरू की। 2014 से अब तक लगभग आठ हजार से अधिक उग्रवादी हथियार डालकर देश की मुख्यधारा में शामिल हो चुके हैं। 2014 की तुलना में 2021 में उग्रवाद की घटनाओं में 74 प्रतिशत की कमी और सुरक्षा बलों में 60 प्रतिशत और आम नागरिकों की जनहानि में 89 प्रतिशत की कमी आई है।
पूर्वोतर की तरह कश्मीर भी अब अमन की राह पर है। 5 अगस्त 2019 को अनुच्छेद 370 के हटने से पहले के 37 महीनों और बाद के 37 महीनों की तुलना करें तो आतंकी घटनाओं में 34 प्रतिशत और सुरक्षा बलों की मृत्यु के मामलों में 54 प्रतिशत की कमी दर्ज की गई है।
नागालैंड की राजा मिर्च, त्रिपुरा का कटहल पहुंचा विदेश, असम के लेमन का भी लंदन में निर्यात:
एपीडा की पहल से त्रिपुरा के कटहल को पहली बार एक स्थानीय निर्यातक के माध्यम से लंदन तथा नागालैंड के राजा मिर्च को लंदन में निर्यात किया गया। इसके अतिरिक्त, असम के स्थानीय फल लेटेकु को दुबई में निर्यात किया गया तथा असम के पान के पत्तों को नियमित रूप से लंदन में निर्यात किया जा रहा है। पूर्वोत्तर क्षेत्र के जीआई उत्पादों जैसे कि भुत जोलोकिया, असम लेमन आदि की तरफ प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी का ध्यान गया था। मोदी जी ने अपने मन की बात कार्यक्रम के दौरान इसका उल्लेख किया। असम लेमन का अब नियमित रूप से लंदन तथा मध्य पूर्व देशों को निर्यात होता है और 2022 तक 50 एमटी से अधिक असम लेमन का निर्यात किया जा चुका है। लीची तथा कद्दू की भी कई खेपें एपीडा द्वारा असम से विभिन्न देशों में निर्यात की जा चुकी हैं।
जम्मू-कश्मीर के हित में क्रांतिकारी फैसले
अनुच्छेद 370 को खत्म करने का प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी का युगांतरकारी फैसला था। तब राज्यसभा में बहुमत न होने के बावजूद पीएम मोदी ने साबित कर दिखाया कि जो वो ठान लेते हैं, उसे पूरा करके ही दम लेते हैं। उनका फैसला रंग ला रहा है।अनुच्छेद 370 को खत्म करने के ऐतिहासिक फैसले का ही परिणाम है कि जम्मू-कश्मीर अब सचमुच ही ‘स्वर्ग’ बनने की दिशा में अग्रसर है। न सिर्फ देशी-विदेशी पर्यटक, बल्कि दुनियाभर से इस साल आए 1.62 करोड़ पर्यटकों ने भी 75 साल का रिकार्ड तोड़कर धरती के स्वर्ग के साथ कदम से कदम मिलाए हैं।
स्वातंत्र्य वीर सावरकर को फिल्माया बीबीसी के एक ब्रिटिश पत्रकार ने, सेलुलर जेल में। वीर सावरकर, भगत सिंह, रामप्रसाद बिस्मिल आदि का अपमान करने वाले सभी लोग, भारत को स्वतंत्रता सिर्फ अहिंसा से मिली कहकर क्रांतिकारियों को कमजोर करने का इरादा रखते हैं।
ॐ HINDUTVA
Rare footage of BBC by a British journalist who filmed "Swatantrya Veer Savarkar." in Cellular Jail.
All those insulting him are intending to insult the freedom movement of India and undermine the revolutionaries who led to Independent India. pic.twitter.com/wHcko9Hikh
— Sameet Thakkar (Modi Ka Parivar) (@thakkar_sameet) November 20, 2022
काला पानी की सजा के दौरान सेलुलर जेल में स्वातंत्र्य वीर सावरकर ने जेल की दीवारों पर कील व कोयले से लिखी ६००० कवितायें , फिर कंठस्थ की।
सेलुलर जेल में काला पानी की सजा भुगतने और भारत माता की जय का नारा लगा कर फांसी के फंदे को हंसते हुए चूमने वालों की लिस्ट प्रकाशित करे सरकार फिर चाहे वे अहिंसा से आज़ादी दिलाने वाले हों या या भगत सिंह, अशफाक उल्ला खान, आदि।
स्वातंत्र्य वीर सावरकर इस दुनिया के एकमात्र ऐसे व्यक्तित्व हैं जिनकी किताब ‘1857 का स्वतंत्रता समर’ प्रकाशित होने से पहले ही अंग्रेजों द्वारा प्रतिबंधित कर दी गई थी। यह वह किताब है जिसके द्वारा वीर सावरकर ने यह सिद्ध किया था कि 1857 की क्रांति जिसे अंग्रेज महज एक सिपाही विद्रोह ग़दर मानते हैं, वह भारत का प्रथम स्वतंत्रता संग्राम था। वीर सावरकर वही क्रांतिवीर हैं जिन्हें ब्रिटिश सरकार ने क्रांति के अपराध में काले पानी की सजा देकर 50 साल के लिए अंडमान की सेल्युलर जेल भेज दिया था। 10 साल बाद जब वीर सावरकर काला पानी की दिल दहला देने वाली यातनाएं सहकर जेल से बाहर आए, तभी से हमारे देश के कुछ बुद्धूजीवी और वंशवादी पार्टी नेता अपने और अपने पूर्वजों के देश विरोधी काले कारनामें जैसे नेहरू ने मांगी थी माफ़ी छिपाने के लिए अंग्रेजों से माफी मांगने का आरोप वीर सावरकर पर लगा रहे हैं।
जिस माफीनामे के बारे में बताया जाता रहा है, वह सिर्फ़ एक सामान्य सी याचिका थी, जिसे फ़ाइल करना राजनीतिक कैदियों के लिए एक सामान्य कानूनी विधान था। पारिख घोष जो कि महान क्रांतिकारी अरविंद घोष के भाई थे, सचिन्द्र नाथ सान्याल, जिन्होंने एचआरए का गठन किया था, इन सबने भी ऐसी ही याचिकाए दायर की थी और इनकी याचिकाए स्वीकार भी हुई थी।
जॉर्ज पंचम की भारत यात्रा और प्रथम विश्व युद्ध के बाद पूरी दुनिया में राजनीतिक बंदियों को अपने बचाव के लिए ऐसी सुविधाएं दी गयी थीं। सावरकर ने अपनी आत्मकथा में लिखा है, ‘जब-जब सरकार ने सहूलियत दी, तब-तब मैंने याचिका दायर की’। स्वातंत्र्य वीर सावरकर ने भी अपनी याचिका इसीलिए दायर की थी कि कहीं ऐसा न हो कि उनका जीवन जेल की सलाखों के पीछे ही फंसकर समाप्त हो जाए और भारतीय स्वतंत्रता का उनका महालक्ष्य अधूरा रह जाए।
महात्मा गांधी ने भी 1920-21 में अपने पत्र ‘यंग इंडिया’ में वीर सावरकर के पक्ष में लेख लिखे थे। गांधी जी का भी विचार था कि सावरकर को चाहिए कि वे अपनी मुक्ति के लिए सरकार को याचिका भेजें।
न्यायालय ने तो वीर सावरकर को कब का बाइज़्ज़त बरी कर दिया था लेकिन हमने आज तक उस देशभक्त भारत माता के महान सपूत को कटघरे में खड़ा कर रखा है। हमें दुःख होना चाहिए कि अपने ही राष्ट्र नायकों पर हमने प्रश्न चिन्ह उठाए। यह क्रम अभी भी जारी है। हमारी सेना ने जो सर्जिकल स्ट्राइक की, लद्दाख से गलवान घाटी से न सिर्फ भगाया बल्कि १०० से अधिक चीनी सैनको को भी मार गिराया। उस भी प्रश्न चिन्ह ?
सिर्फ अहिंसा से आज़ादी दिलाने वालों को भी हुई थी फांसी और अंडमान जेल काला पानी की सजा!
भगत सिंह के गुरु थे करतारा। जेल में उनसे मिलाने उनके दादा गए तो उन्होंने कहा अरे करतारा तुम जिनके लिए फांसी पर चढ़ रहे हो वे तो तुमको गाली दे रहे हैं! दादा के कहने का तात्पर्य था की माफ़ी मांग कर जय से बाहर आ जाओ। करतारा ने पूछा क्या गॅरंटी है जेल से बाहर आकर कितने दिन मैं जीऊंगा, हो सकता है मुझे उसी समय सांप काट ले! दादा निरुत्तर हो गए!
पुरातनकाल में जब लिखने के लिए कागज का आविष्कार नहीं हुआ था, तब वेदों और पुराणों की रचना विषेशकर भोजपत्र, पाम पत्र, ताम्रा पत्र पर लिखकर की गई थी। मंदिरों की दीवालों पर भी प्राचीन शिलालेख पाए जाते हैं। भोजपत्र एक ऐसा दुर्लभ पत्र है जो हिमालय की तराई के घने जंगलों से प्राप्त किया जाता था।
आध्यात्मिक नगरी देवघर के एक नर्सरी में भोजपत्र का दुर्लभ पेड़ लगाकर प्राचीन भारत की समृद्ध विरासत को पुनर्जीवित करने का प्रयत्न अब हो रहा है।
भोजपत्र के पौधे को हिमाचल से लाकर यहां लगाया गया है। इस पौधे की विशेषता है कि इसके तने को किसी भी जगह पर दबाने पर गड्ढा बन जाता है. और परत दर परत इसके छाल निकाले जा सकते हैं।
भोजपत्र में लिखी गई कोई भी चीज हजारों वर्ष तक रहता है. उस काल के विक्रमशिला, मिथिला, नालंदा या अन्य विश्वविद्यालय में भोजपत्र पर लिखे अनगिनत ग्रंथ थे, जिन्हें विदेशी आक्रमण के दौरान नष्ट कर दिया गया था। बाद में भोजपत्र पर लिखे कई महत्वपूर्ण दस्तावेज को अंग्रेजों के शासनकाल में यहा से उठा कर जर्मनी ले जाया गया था जो आज भी वहां के म्युनिक पुस्तकालय में सुरक्षित है।
भोजपत्र में लिखी गई कोई भी चीज हजारों वर्ष तक रहती है. उस काल के विक्रमशिला, मिथिला, नालंदा या अन्य विश्वविद्यालय में भोजपत्र पर लिखे अनगिनत ग्रंथ थे, जिन्हें विदेशी आक्रमण के दौरान नष्ट कर दिया गया था। बाद में भोजपत्र पर लिखे कई महत्वपूर्ण दस्तावेज को अंग्रेजों के शासनकाल में यहा से उठा कर जर्मनी ले जाया गया था जो आज भी वहां के म्युनिक पुस्तकालय में सुरक्षित है।
दक्षिण भारत में सबसे ज्यादा ताड़ के पत्तों पर लेखन हुआ। सबसे पहले पत्ते को तोड़कर छांव में सुखाया जाता था और फिर साफ्ट करने के लिए किचन में कई दिनों तक टांग कर रखा जाता था। फिर पत्ते पर लिखने के लिए प्लेन बनाने के मकसद से इन्हें पत्थरों पर बड़े सलीके से रगड़ा जाता था। बाद में नुकीले लोहे से पत्तों में छिद्र करके लिखा जाता था। बाद में इसपर कार्बन इंक रगड़ा जाता था। इससे छिद्र में कार्बन भर जाता था और इस तरह लिखावट दिखने लगती थी। पत्ते को कीड़े से बचाने और कार्बन ना छूटे, इसके लिए भी जतन किए जाते थे।
ताड़ के पत्ते पर पांडुलिपियां जो मिलती है, वो 8वीं शताब्दी से भी पुरानी है। 1700-1800 में ब्रिटिशन काल के भी अधिकतर रिकार्ड ताड़ के पत्तों पर ही मिलते हैं।
दैनिक जागरण में प्रकाशित एक लेख के अनुसार पुरातत्व विभाग की मुहर लगी ताड़पत्र पर लिखी पांडुलिपि ‘श्री सूत्र’ तकरीबन 475 साल पुरानी है। इसी प्रकार सुई की नोंक से ताड़पत्र पर लिखा तमिल भाषा का धर्मशास्त्र करीब 600 साल पुराना है। कन्नड़ में लिखी बौद्ध कथाएं विस्मित करती है, वहीं उनके खजाने में सनातन, धर्मशास्त्र, जैन शास्त्र, ज्योतिष तथा आयुर्वेद से सम्बंधित ताड़पत्र पर सजी पांडुलिपियों का अद्भुत संसार मौजूद है। इन प्राचीन धरोहरों में सजे ताड़पत्र पर लिखे कुछ ग्रंथ तो अबूझ और उनके बारे में समझना और समझाना भी एक बहुत बड़ा काम है।
News18 में प्रकाशित एक लेख के अनुसार झारखंड के घाटशिला (Ghatsila) में 200 साल पुराना एक ऐसा ही ताड़ के पत्तों पर लिखा दस्तावेज है. घाटशिला में ताड़ के पत्तों पर लिखा गया प्राचीन ग्रंथ महाभारत (Mahabharat) आज भी सुरक्षित है. ताड़ के पत्तों पर लिखी गई महाभारत की कथा मूल रूप से उड़िया भाषा (Oriya Language) में है, जिसे इस पुजारी परिवार ने काफी संभालकर रखा है. ताड़ के इन पत्रों पर उकेरी गई भाषा आज भी आसानी से पढ़ी जा सकती है. 200 साल पुराने इस धर्मग्रंथ को पुजारी आशित पंडा के परिवार ने पांच पीढ़ियों से अपने पास संभाल रखा है. आशित बताते हैं कि इस ग्रंथ को प्रतिदिन पूजा पाठ के बाद ही पढ़ा जाता है.
जगन्नाथपुरीसेलायागयाथायहग्रंथ
घाटशिला के बहरागोड़ा प्रखंड के महुलडांगरी गांव के पुजारी आशित पंडा के परिवार ने 200 वर्ष पूर्व ताड़ के पत्ते पर लिखे महाभारत को संजो कर रखा है. आशित पंडा ने बताया कि उनका परिवार विशेष अवसरों पर लोगों को महाभारत की कथा सुनाता है. उन्होंने कहा कि उनके पूर्वज जगन्नाथपुरी धाम से ताड़ के पत्ते पर लिखा महाभारत ग्रंथ लाए थे. कई प्रकार के जंगली पत्तों व फलों के रस से तैयार काली स्याही से ताड़ पत्र पर इस ग्रंथ को लिखा गया है. इसकी लिखावट आज 200 वर्षो बाद भी जस की तस है. यह संपूर्ण उड़िया भाषा में है. आज भी इस पुजारी परिवार के पास ये पूरी तरह सुरक्षित है.
राजा राजा चोल (जिन्होंने 985 -1014 सामान्य युग से शासन किया) द्वारा निर्मित, बड़ा मंदिर न केवल अपने राजसी विमान, मूर्तियों, वास्तुकला और भित्तिचित्रों के साथ एक शानदार इमारत है, बल्कि इसमें पत्थर पर उत्कीर्ण तमिल शिलालेखों की संपत्ति और समृद्धि भी है।
TheHindu में प्रकाशित एक लेख के अनुसार तमिलनाडु पुरातत्व विभाग के पूर्व निदेशक, आर. नागास्वामी कहते हैं, “यह पूरे भारत में एकमात्र मंदिर है,” जहां निर्माता ने खुद मंदिर के निर्माण, इसके विभिन्न हिस्सों, लिंग के लिए किए जाने वाले दैनिक अनुष्ठान, चढ़ावे का विवरण जैसे आभूषण, फूल और वस्त्र, की जाने वाली विशेष पूजा, विशेष दिन जिन पर उन्हें किया जाना चाहिए, मासिक और वार्षिक उत्सव, और इसी तरह।
राजा राजा चोल ने मंदिर के त्योहारों को मनाने के लिए ग्रहों की चाल के आधार पर तारीखों की घोषणा करने के लिए एक खगोलशास्त्री को भी नियुक्त किया।
यह भारत का एकमात्र मंदिर है जहां राजा ने एक शिलालेख में उल्लेख किया है कि उन्होंने ‘कटराली’ (‘काल’ का अर्थ पत्थर और ‘ताली’ एक मंदिर) नामक इस सभी पत्थर के मंदिर का निर्माण किया था।
इस महान कृति में राजा राजा चोल ने अपने महल के पूर्वी हिस्से में शाही स्नान कक्ष में बैठे हुए, निर्देश दिया कि उनके आदेश को कैसे अंकित किया जाना चाहिए, उन्होंने कैसे निष्पादित किया मंदिर की योजना, उपहारों की सूची जो उन्होंने, उनकी बहन कुंदवई, उनकी रानियों और अन्य लोगों ने मंदिर को दी थी।
सभी कांसे की माप – मुकुट से पैर की अंगुली तक, उनके हाथों की संख्या और उनके हाथों में उनके द्वारा धारण किए गए प्रतीक – खुदे हुए हैं। अब सिर्फ दो कांस्य मंदिर में बचे हैं – एक नृत्य करने वाले शिव और उनकी पत्नी शिवकामी के। शेष जेवरात अब नहींहैं।
शिलालेखों में मंदिर के सफाईकर्मियों, झंडों और छत्रों के वाहकों, रात में जुलूसों के लिए मशाल-वाहकों और तमिल और संस्कृत छंदों के त्योहारों, रसोइयों, नर्तकियों, संगीतकारों और गायकों के बारे में भी बताया गया है।
1250 साल पुराना है कांचीपुरम से 30 किमी दूर उथिरामेरूर
तमिलनाडु के प्रसिद्ध कांचीपुरम से 30 किमी दूर उथिरामेरूर नाम का गांव लगभग 1250 साल पुराना है. गांव में एक आदर्श चुनावी प्रणाली थी और चुनाव के तरीके को निर्धारित करने वाला एक लिखित संविधान था. यह लोकतंत्र के सबसे पुराने मंदिरों में से एक है।
वैकुंठ पेरुमल मंदिर तमिलनाडु के कांचीपुरम में स्थित है।
यहां वैकुंठ पेरुमल (विष्णु) मंदिर के मंच की दीवार पर, चोल वंश के राज्य आदेश वर्ष 920 ईस्वी के दौरान दर्ज किए गए हैं. इनमें से कई प्रावधान मौजूदा आदर्श चुनाव संहिता में भी हैं. यह ग्राम सभा की दीवारों पर खुदा हुआ था, जो ग्रेनाइट स्लैब से बनी एक आयताकार संरचना थी।
भारतीय इतिहास में स्थानीय स्तर पर लोकतंत्र की मजबूती का एक और उदाहरण कांचीपुरम जिले में स्थित उत्तीरामेरुर की दीवारों पर पर सातवी शताब्दी के मध्य में प्रचलित ग्राम सभा व्यवस्था का सविधान लिखा है, इसमें चुनाव लड़ने के लिए आवश्यक योग्यता, चुनाव की विधि, चयनित उम्मीदवारों के कार्यकाल, उम्मीदवारों के अयोग्य ठहराए जाने की परिस्थितियां और लोगों के उन अधिकारियों की भी चर्चा है जिसके तहत लोग अपने जन प्रतिनिधि वापस बुला सकते थे। यदि ये जन प्रतिनिधि अपनी जिम्मेवारियों का निर्वहन ठीक से नहीं करते थे।
वैकुंठ पेरुमल मंदिर के पल्लव वंश की मूर्तियां और कई शिलालेखों ने दक्षिण भारत के इतिहासकारों को प्राचीन पल्लव इतिहास की सभी घटनाओं के बारे में लिखने और इस राजवंश के कालक्रम को ठीक करने में मदद की है।
पल्लव राजाओं के शासनकाल में फैले लगभग 25 शिलालेख, उथिरामेरुर में पाए गए हैं। ९२१ ई. के परांतक प्रथम का उत्तरमेरूर अभिलेख भारत के तमिलनाडु राज्य के कांचीपुरम जिले में स्थित उत्तरमेरूर नामक स्थान से प्राप्त हुआ है। परांतक प्रथम के उत्तरमेरूर अभिलेख से चोल वंश के शासक के समय की स्थानीय स्वशासन की जानकारी मिलती है।
उत्तरमेरूर अभिलेख के अनुसार चोल वंश के शासन काल के दौरान भारत में ब्राह्मणों को भूमि का अनुदान दिया जाता था जिसके प्रशासनिक उत्तरदायित्वों का निर्वहन गाँव स्वयम् करता था।
चोल वंश का शासन काल के दौरान भारत में गाँवों को 30 वार्डों में विभाजित किया जाता था।
चोल वंश के शासन काल में भारत में 30 वार्डों या सदस्यों की इस समिति को सभा या उर कहा जाता था।
चोल वंश के शासन काल में भारत में समिति का सदस्य बनने हेतु कुछ योग्यताएं जरूरी थी जैसे-
* सदस्य बनने के लिए कम से कम 1½ एक जमीन होना आवश्यक था।
* सदस्य बनने के लिए स्वयम् का मकान होना आवश्यक था।
* सदस्य बनने के लिए वेदों का ज्ञान होना आवश्यक था।
* जो सदस्य बनना चाहता था वह स्वयम् तथा उसका परिवार व उसके मित्रों में से कोई भी आपराधिक प्रवृति का नहीं होना चाहिए।
* सदस्य बनने के लिए आयु सीमा 35 वर्ष से 70 वर्ष तक थी।
* कोई भी व्यक्ति सदस्य केवल एक ही बार बन सकता था।
* सदस्य बनाने के लिए लाटरी का चयन बच्चों से करवाते थे।
उम्मीदवारों का चयन कुडावोलोई (शाब्दिक रूप से, ताड़ के पत्ते [टिकट] के बर्तन [का]) प्रणाली के माध्यम से किया गया था:
ताड़ के पत्ते के टिकटों पर लिखा था योग्य उम्मीदवारों के नाम
टिकटों को एक बर्तन में डाल दिया गया और फेरबदल किया गया
एक युवा लड़के को जितने पद उपलब्ध हैं उतने टिकट निकालने के लिए कहा गया
टिकट पर नाम सभी पुजारियों द्वारा पढ़ा गया था
जिस उम्मीदवार का नाम पढ़कर सुनाया गया, उसका चयन किया गया
समिति के एक सदस्य का कार्यकाल 360 दिन का होता था। जो कोई भी अपराध का दोषी पाया गया उसे तुरंत कार्यालय से हटा दिया गया।
जिसे सर्वाधिक मत प्राप्त होते थे, उसे ग्राम सभा का सदस्य चुना लिया जाता था. इतना ही नहीं, पारिवारिक व्यभिचार या दुष्कर्म करने वाला 7 पीढ़ी तक चुनाव में शामिल होने से अयोग्य हो जाता था।
भारत रत्न अटल बिहारी वाजपेयी जी की बेहतरीन कविताओं में से एक “भारत जमीन का टुकड़ा नही” भारत देश को केवल एक जमीन के टुकड़े के रूप में न देखते हुए उसे पूर्ण राष्ट्रपुरुष के रूप में अभिव्यक्त करती है।यह कविता देशप्रेम की श्रेष्ठ अभिव्यक्ति को अभिव्यक्त करते हुए राष्ट्र के प्रति सम्पूर्ण जीवन के समर्पण का भाव व्यक्त करती है।
भारत जमीन का टुकड़ा नहीं,
जीता जागता राष्ट्पुरुष है।
हिमालय मस्तक है, कश्मीर किरीट है,
पंजाब और बंगाल दो विशाल कंधे हैं।
पूर्वी और पश्चिमी घाट दो विशाल जंघायें हैं।
‘कन्याकुमारी इसके चरण हैं, सागर इसके पग पखारता है।
यह चन्दन की भूमि है, अभिनन्दन की भूमि है,
यह तर्पण की भूमि है, यह अर्पण की भूमि है।
इसका कंकर-कंकर शंकर है,
इसका बिंदु-बिंदु गंगाजल है।
हम जिएंगे तो इसके लिए
मरेंगे तो इसके लिए।
-अटल बिहारी वाजपेयी
3 मार्च 2020- पीएम मोदी ने भाजपा संसदीय दल की बैठक में पूर्व पीएम मनमोहन सिंह का नाम लिए बिना पीएम मोदी ने कहा कि पूर्व प्रधानमंत्री को ‘भारत माता की जय’ कहने से भी दुर्गंध आती है। आजादी के समय इस कांग्रेस में कुछ लोग वंदे मातरम गाने के खिलाफ थे। अब उन्हें ‘भारत माता की जय’ बोलने में भी दिक्कत हो रही है।
यहॉ यह उल्लेखनीय है कि २२ फरवरी २०२० पूर्व प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह ने कहा कि राष्ट्रवाद और भारत माता की जय नारे का गलत इस्तेमाल हो रहा है। इस नारे के जरिये ‘भारत की उग्र व विशुद्ध भावनात्मक छवि” गढऩे में गलत रूप से किया जा रहा है जो लाखों नागरिकों को अलग कर देता है।
यहाँ यह उल्लेखनीय है कि 26 जनवरी 2020 को न्यूयॉर्क, शिकागो, ह्यूस्टन, अटलांटा और सैन फ्रांसिस्को के भारतीय वाणिज्य दूतावास और वाशिंगटन में भारतीय दूतावास में नागरिकता कानून के खिलाफ प्रदर्शनों में प्रदर्शनकारियों ने ”भारत माता की जय” और ”हिंदू, मुस्लिम, सिख, ईसाई, आपस में सब भाई-भाई” नारे लगाए ।
अमेरिका के करीब 30 शहरों में हाल में गठित संगठन ‘कोएलिशन टू स्टॉप जिनोसाइड’ ने विरोध प्रदर्शनों का आयोजन किया। इसमें भारतीय अमेरिकी मुस्लिम परिषद (आईएएमसी) इक्वालिटी लैब्स, ब्लैक लाइव्स मैटर (बीएलएम), ज्यूईश वॉयस फॉर पीस (जेवीपी) और मानव अधिकारों के लिए हिंदू (एचएफएचआर) जैसे कई संगठन शामिल हैं। 1962 के युद्ध को लेकर संसद में काफी बहस हुई। उन दिनों अक्साई चिन चीन के कब्जे में चले जाने को लेकर विपक्ष ने हंगामा खड़ा कर रखा था।जवाहर लाल नेहरू ने संसद में ये बयान दिया कि अक्साई चिन में तिनके के बराबर भी घास तक नहीं उगती, वो बंजर इलाका है। भरी संसद में महावीर त्यागी ने अपना गंजा सिर नेहरू को दिखाया और कहा- यहां भी कुछ नहीं उगता तो क्या मैं इसे कटवा दूं या फिर किसी और को दे दूं। सोचिए अपने ही मंत्रिमंडल के सदस्य महावीर त्यागी का उत्तर सुनकर नेहरू का क्या हाल हुआ होगा?
नेहरू जी को भी भारत माता शब्द से एलर्जी थी लेकिन महात्मा गांधी से नहीं।
1936 में शिव प्रसाद गुप्ता ने बनारस में भारत माता का मंदिर बनवाया। इसका उद्घाटन महात्मा गांधी ने किया था।
पंडित नेहरू कहा करते थे कि भारत का मतलब जमीन का वह टुकड़ा- अगर आप भारत माता की जय का नारा लगाते हैं तो आप हमारे प्राकृतिक संसाधनों की ही जय-जयकार कर रहे हैं।
आधिकारिक रिकॉर्ड के अनुसार, नेहरू को अहमदनगर किला जेल भेजा गया, जहां उन्होंने सबसे लंबा समय और अपने 9 कारावास काटे। इसी जेल को उन्होंने या ब्रिटिश अधिकारियों ने क्यों चुना यह अभी भी रहस्य बना हुआ है! इसी जेल में उन्होंने अपना ग्रन्थ ‘डिस्कवरी ऑफ इंडिया’ लिखा। वीर सावरकर जैसे कोयले या कील सेलुलर जेल की दीवालों पर लिखते और कंठस्त करते थे वैसे नहीं, नेहरू जी सुन्दर पेन से सुनहले पेपर पर लिखे । ऐतिहासिक रिकॉर्ड बताते हैं कि कैसे नेहरू ने जेल परिसर में बागवानी की और अपने पसंदीदा फूल गुलाब उगाए। नेहरू जी अपने कोट में गुलाब का फूल लगाते रहे हैं। संभव है इसी लिए राहुलगांधी के द्वारा भी कोट पर जनेऊ लगाने की चर्चा होती है। https://twitter.com/isiddhantsharma/status/935928488707604480 जेल जेल में अंतर है। अभी AAP के सत्येंद्र जैन जेल में हैं, मंत्री बने हुए हैं, ८ किलो वजन बढ़ चुका है, ज्यादा बढ़ गया तो वजन कम करने के लिए केजरीवाल जी से सलाह मसविरा करने की जरुरत हो सकती है क्यों कि उनका मफलर भी अब नहीं दीखता। लालू यादव व्ही कुछ वर्ष जेल से अपनी पार्टी RJD क नेतृत्व करते रहे हैं।
15 अगस्त 2022 को लाल किले से अपने सम्बोधन में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने कहा, ‘हमारी विरासत पर हमें गर्व होना चाहिए। जब हम अपनी धरती से जुड़ेंगे, तभी तो ऊंचा उड़ेंगे। जब हम ऊंचा उड़ेंगे, तभी हम विश्व को भी समाधान दे पाएंगे।’
इसको इसी बात से जाना जा सकता है कि 2009 में भारत की सर्वोच्च न्यायालय की एक खंड पीठ ने आधुनिक हिन्दू विधि की सही समझ के लिए ‘मीमांसा सिद्धांतों के परिप्रेक्ष्य में ही उसका अवलोकन करने की बात कही है – “यह बेहद अफसोस की बात है कि हमारे कानून की अदालतों में वकील Maxwell और Craze को उद्धृत करते हैं लेकिन कोई भी व्याख्या के मीमांसा सिद्धांतों का उल्लेख नहीं करता है। अधिकांश वकीलों को उनके अस्तित्व के बारे में नहीं सुना होगा। आज हमारे तथाकथित शिक्षित लोग पुरातन महानता के बारे में काफी हद तक अनभिज्ञ हैं। हमारे पूर्वजों की बौद्धिक उपलब्धि और बौद्धिक खजाना जो उन्होंने हमें विरासत में दिया है। अधिकांश मीमांसा सिद्धांत तर्कसंगत और वैज्ञानिक हैं और कानूनी क्षेत्र में उपयोग किए जा सकते हैं।” न्यायमूर्ति श्री मार्कण्डेय काट्जू, प्रकरण नाम – विजय नारायण धत्ते, 17 अगस्त 2009
नेहरू जी के मंत्रिमंडल में रहे एक महत्त्वपूर्ण सदस्य कैलाश नाथ काटजू। कैलाशनाथ काटजू के पोते Grandson श्री मार्कण्डेय काट्जू (शिव नाथ के पुत्र) ने भारत के सर्वोच्च न्यायालय में न्यायाधीश के रूप में कार्य किया है। श्री मार्कण्डेय काट्जू कश्मीरी मूल के हैं।
‘हिन्दू’ शब्द कभी साम्पदायिक नहीं रहा। तुष्टिकरण की राजनीति करने वाले राजनीतिज्ञों ने इसे अल्पसंख्यकों विशेषकर मुस्लिमों से अलग कर देखा। इसीलिए मोहन भागवत ने 26 Sep 2022 को शिलांग में एक कार्यक्रम में कहा कि हिंदू एक धर्म नहीं बल्कि जीवन जीने का तरीका है। हिंदुस्तान ने ही दुनिया को मानवता का पाठ पढ़ाया है। उन्होंने कहा कि मुगलों और ब्रिटिश काल से भी पहले हिंदू अस्तित्व में थे।
https://web.archive.org/web/2009111407
१५ अगस्त 2022 को लाल किले से प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने भी कहा, ‘हमारी विरासत पर हमें गर्व होना चाहिए। जब हम अपनी धरती से जुड़ेंगे, तभी तो ऊंचा उड़ेंगे। जब हम ऊंचा उड़ेंगे, तभी हम विश्व को भी समाधान दे पाएंगे।’
“लोक + तंत्र ”। लोक का अर्थ है जनता तथा तंत्र का अर्थ है शासन। अत: लोकतंत्र का अर्थ हुआ जनता का राज्य. यह एक ऐसी जीवन पद्धति है जिसमें स्वतंत्रता, समता और बंधुता समाज-जीवन के मूल सिद्धांत होते हैं. अंग्रेजी में लोकतंत्र शब्द को डेमोक्रेसी (Democracy) कहते है। अब्राहम लिंकन के अनुसार लोकतंत्र जनता का, जनता के द्वारा तथा जनता के लिए शासन है।
Demo का अर्थ है common person और cracy का अर्थ है Rules। यदि हम इसे ऐतिहासिक दृष्टिकोण से देखें, तो भारत में लोकतांत्रिक सरकार की व्यवस्था पूर्व-वैदिक काल की है। भारत में प्राचीन काल से ही एक शक्तिशाली लोकतांत्रिक व्यवस्था रही है। इसका प्रमाण प्राचीन साहित्य, सिक्कों और अभिलेखों में मिलता है।
राजा मंत्रियों और विद्वानों से विचार-विमर्श कर ही निर्णय लेने वाली बैठकों और समितियों का उल्लेख ऋग्वेद और अथर्ववेद दोनों में मिलता है। उनमें अलग-अलग विचारधारा के लोग भी कई दलों में बंटे हुए रहते थे और कभी-कभी असहमति के कारण झगड़े भी हो जाते थे।
याज्ञवल्क्य स्मृति में तो सभा मंे निर्वाचित सदस्यों द्वारा राग, द्वेष, लालच अथवा भयवश गलत निर्णय देने पर अपराधी को दिए जाने वाले दण्ड से दुगुने दण्ड का भी प्रावधान है। ख्1,
मनुस्मृति में मनु उल्लेख करते हैं कि न्यायाधीश को धर्मासन पर
बैठकर या खड़े होकर विवादों का निर्णय लेना चाहिए। ख् 2 ,
प्राचीन काल से ही हमारे देश मे गौरवशाली लोकतंत्रीय परम्परा थी। वर्तमान संसदीय प्रणाली की तरह ही प्राचीन समय में परिषदों का निर्माण होता था जो से मिलता-जुलता था। गणराज्य या संघ की नीतियो का संचालन इन्ही परिषदों द्वारा होता था। कई जगह तो सर्वसम्मति होना अनिवार्य भी होता था। किसी भी मुद्दे पर निर्णय होने से पूर्व सदस्यो के बीच खुलकर चर्चा होती थी। पक्ष-विपक्ष में विषय पर जोरदार बहस होती थी। उसके बाद ही सर्वसम्मति से निर्णय का प्रतिपादन किया जाता था। सबकी सहमति नहीं होने पर बहुमत से निर्णय होता था जिसे ‘भूयिसिक्किम’ कहा जाता था। इसके लिए वोटिंग होती थी।
वेदों और स्मृतियों के काल में निर्वाचन आयुक्त की भांति इस चुनाव की देख-रेख करने वाला भी एक अधिकारी ‘शलाकाग्राहक’ होता था। वोट देने हेतु तीन प्रणालिया थीं –
1 गूढ़क (गुप्त रूप से) जिसमें वोट देने वाले व्यक्ति का नाम नहीं लिखा होता था
2 विवृतक (प्रकट रूप से) अर्थात् खुलेआम घोषणा
3 संकर्णजल्पक (शलाकाग्राहक के कान में चुपके से कहना
तीनों में से कोई भी प्रक्रिया अपनाने के लिए सदस्य स्वतंत्र थे।
इस तरह हम पाते हैं कि प्राचीन काल से ही हमारे देश मे ं
गौरवशाली लोकतंत्रीय परम्परा थी तथा आधुनिक काल में प्राप्त
पूर्ण विकसित वृक्ष रूपी लोकतंत्र की जड़ें हमारे प्राचीन काल में ही
थी।
वर्त्तमान जैसे ही प्राचीन काल में भी हमारे देश में सुव्यवस्थित शासन के संचालन हेतु अनेक मंत्रालयों का उल्लेख हमें अर्थशास्त्र, मनुस्मृति, शुक्रनीति, महाभारत आदि में प्राप्त होता है। यजुर्वेद और ब्राह्मण ग्रंंथों में इन्हें ‘रत्नी ‘ कहा गया। महाभारत के अनुसार मंत्रत्रमंडल में 6 मेम्बर होते थे। मनुके अनुसार इनकी संख्या 7-8 शुक्र के अनुसार 10 होती थी। सभा बडी होती तो उसके मेंबर्स में से कुछ लोगों को मिलाकर एक कार्यकारी समिति निर्वाचित होती थी।
इनके कार्य इस प्रकार थे:-
(1) पुरोहित– यह राजा का गुरु माना जाता था। राजनीति और धर्म दोनों में निपुण व्यक्ति को ही यह पद दिया जाता था।
(2) उपराज (राजप्रतिनिधि)- इसका कार्य राजा की अनुपस्थिति में शासन व्यवस्था का संचालन करना था।
(3) प्रधान– प्रधान अथवा प्रधानमन्त्री, मन्त्रिमण्डल का सबसे महत्वपूर्ण सदस्य था। वह सभी विभागों की देखभाल करता था।
(4) सचिव– वर्तमान के रक्षा मन्त्री की तरह ही इसका काम राज्य की सुरक्षा व्यवस्था सम्बन्धी कार्यों को देखना था।
(5) सुमन्त्र– राज्य के आय-व्यय का हिसाब रखना इसका कार्य था। चाणक्य ने इसको समर्हत्ता कहा।
(6) अमात्य– अमात्य का कार्य सम्पूर्ण राज्य के प्राकृतिक संसाधनों का नियमन करना था।
(7) दूत– वर्तमान काल की इंटेलीजेंसी की तरह दूत का कार्य गुप्तचर विभाग को संगठित करना था। यह राज्य का अत्यन्त महत्वपूर्ण एवं संवेदनशील विभाग माना जाता था।
इनके अलावा भी कई विभाग थे। इतना ही नहीं वर्तमान काल की तरह ही पंचायती व्यवस्था भी हमें अपने देश में देखने को मिलती है। शासन की मूल इकाई गांवों को ही माना गया था। प्रत्येक गाँव में एक ग्राम-सभा होती थी। जो गाँव की प्रशासन व्यवस्था, न्याय व्यवस्था से लेकर गाँव के प्रत्येक कल्याणकारी काम को अंजाम देती थी। इनका कार्य गाँव की प्रत्येक समस्या का निपटारा करना, आर्थिक उन्नति, रक्षा कार्य, समुन्नत शासन व्यवस्था की स्थापना कर एक आदर्श गाँव तैयार करना था। ग्रामसभा के प्रमुख को ग्रामणी कहा जाता था।
सभा बडी होती तो उसके मेंबर्स में से कुछ लोगों को मिलाकर एक कार्यकारी समिति निर्वाचित होती थी। उक्त सभा में युवा एवं वृद्ध हर उम्र के लोग होते थे । उनकी बैठक एक भवन में होती जिसे सभागार ककहा जाता था। देश में कई गणराज्य थे। मौर्य साम्राज्य पतन के पश्चात कुछ नये प्रजातान्त्रिक राज्यों ने जन्म लिया, जैसे यौधेय, मानव और अर्जुनीय आदि।
अम्बष्ठ गणराज्य -पंजाब में स्थित इस गणराज्य ने युद्ध न करके उससे संधि कर ली थी।
अग्रेय (आग्रेय (अगलस्सी, अगिरि, अगेसिनेई) (गणराज्य) – वर्तमान अग्रवाल जाति का विकास इसी गणराज्य से हुआ है। इस गणराज्य ने सिकंदर की सेनाओं का बहादुरी से मुकाबला किया था। जब उन्हें लगा कि वे युद्ध में जीत हासील नहीं कर पायेंगे तब उन्होंने स्वयं अपनी नगरी को जला लिया था। दक्षिण पंजाब का यह एक जनपद, शिबि जनपद के पूर्व भाग में स्थित था । यह देश झंग – मघियाना प्रदेश में बसा हुआ था। अपने देश वापस जाते समय शिबि जनपद के पश्चात् सिकंदर ने इन लोगों के साथ युद्ध किया था। इस आग्रेय गण का प्रवर्तक अग्रसेन था, एवं इनकी प्रधान नगरी का नाम ही अग्रोदक था, जो सतलज नदी के पूर्वदक्षिण में बसी हुई थी। सिकंदर के समय यह गण अत्यंत शक्तिशाली था, एवं ग्रीक लेखको के अनुसार इनकी जिस सेना ने सिकंदर के साथ युद्ध किया था, उसमें चालिस हजार पदाति, एवं तीन हजार अश्वारोंही सैनिक थे।
इन लोगों को जीत कर सिकंदर ने मालव गण के लोगों को जीता था, जिससे प्रतीत होता है कि, ये दोनों गण एक दूसरे के पडोस में थे। महाभारत के कर्णदिग्विजय में भी इन दोनों गणों का एकत्र निर्देश प्राप्त है [म. व. परि. १.२४.६७] ।
गणराज्य या संघ की नीतियों का संचालन इन्हीं परिषदों द्वारा होता था। इसके सदस्यों की संख्या विशाल थी। उस समय के सबसे प्रसिद्ध गणराज्य लिच्छवि की केंद्रीय परिषद में 7,707 सदस्य थे वहीं यौधेय की केंद्रीय परिषद के 5,000 सदस्य थे। वर्तमान संसदीय सत्र की तरह ही परिषदों के अधिवेशन नियमित रूप से होते थे।
हमारे प्राचीन शास्त्र रचियताओं की यह विशेषता है कि वे समझते हैं कि समाज को देश, काल, पात्र के अनुरूप बदलना आवश्यक है। नियम के प्रति दृढ़ता भी आवश्यक है किन्तु उसी नियम में परिवर्तन की गुंजाइश भी आवश्यक है। ऐसा नहीं होने पर शास्त्र जड़ हो जाएगा एवं व्यवस्था में परिवर्तन नहीं हो सकेगा।
अतएव इस सन्दर्भ में राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के प्रमुख मोहन भागवत के 08 अक्टूबर २०२२ के कथन का उल्लेख करना उचित है कि ‘वर्ण’ और ‘जाति’ को पूरी तरह से खत्म कर देना चाहिए। नागपुर में एक पुस्तक विमोचन कार्यक्रम में बोलते हुए उन्होंने कहा कि जाति व्यवस्था की अब कोई प्रासंगिकता नहीं है।
आरएसएस प्रमुख ने कहा कि जो कुछ भी भेदभाव का कारण बनता है, उसे व्यवस्था से बाहर कर देना चाहिए। उन्होंने यह भी कहा कि पिछली पीढ़ियों ने भारत सहित हर जगह गलतियाँ कीं। आगे भागवत ने कहा कि उन गलतियों को स्वीकार करने में कोई दिक्कत नहीं है जो हमारे पूर्वजों ने गलतियाँ की हैं।
द्विसदनीय संसद की शुरुआत वैदिक काल से मानी जा सकती है। इन्द्र का चयन वैदिक काल में भी इन्हीं समितियों के कारण हुआ था। उस समय इंद्र ने एक पद धारण किया था जिसे राजाओं का राजा कहा जाता था।
गणतंत्र शब्द का प्रयोग ऋग्वेद में चालीस बार, अथर्ववेद में 9 बार और ब्राह्मण ग्रंथों में कई बार हुआ है:
भावार्थ : ईश्वर उपदेश करता है कि राजा और प्रजा के पुरुष मिल के सुख प्राप्ति और विज्ञानवृद्धि कारक राज्य के संबंध रूप व्यवहार में तीन सभा अर्थात- विद्यार्य्यसभा, धर्मार्य्य सभा, राजार्य्यसभा नियत करके बहुत प्रकार के समग्र प्रजा संबंधी मनुष्यादि प्राणियों को सब ओर से विद्या, स्वतंत्रता, धर्म, सुशिक्षा और धनादि से अलंकृत करें।
भावार्थ : उस राज धर्म को तीनों सभा संग्रामादि की व्यवस्था और सेना मिलकर पालन करें।
राजा : राजा की निरंकुशता पर लगाम लगाने के लिए ही सभा ओर समिति है जो राजा को पदस्थ और अपदस्थ कर सकती है। वैदिक काल में राजा पद पैतृक था किंतु कभी-कभी संघ द्वारा उसे हटाकर दूसरे का निर्वाचन भी किया जाता था। जो राजा निरंकुश होते थे वे अवैदिक तथा संघ के अधिन नहीं रहने वाले थे। ऐसे राजा के लिए दंड का प्रावधान होता है। राजा ही आज का प्रधान है।
आधुनिक संसदीय लोकतंत्र के कुछ महत्वपूर्ण तथ्य जैसे बहुमत से निर्णय लेना पहले भी प्रचलित थे। वैदिक काल के बाद छोटे-छोटे गणराज्यों का वर्णन मिलता है जिनमें शासन से संबंधित मुद्दों पर चर्चा करने के लिए लोग एकत्रित होते थे।
प्रो. भगवती प्रकाश के पांचजन्य लेख के अनुसार हजारों साल पहले, जब दुनिया में लोग आदिवासियों की तरह रहते थे, उस समय भारत में गणतंत्र, लोकतंत्र जैसे शासन के उन्नत विचारों को वैदिक साहित्य में संकलित किया गया था।
वेदों में राष्ट्र, लोकतंत्र, राज्य के मुखिया या राजा के चुनाव और निर्वाचित निकायों के प्रति उनकी जिम्मेदारी के कई संदर्भ हैं। वेदों, वेदांगों, रामायण, महाभारत, पुराणों, नीति शास्त्रों, सूत्र ग्रंथों, कौटिल्य और कमण्डक आदि में गणतंत्र, सार्वभौम शासन विधान यानी वैश्विक शासन और निर्वाचित प्रतिनिधियों की स्मृति जैसी अवधारणाएँ भी मौजूद हैं।
राजतंत्र के सभी प्राचीन समर्थकों ने राष्ट्र को राज्य धर्म का आधार और गणतंत्र को राज्य धर्म का साधन माना है।
कई सहस्राब्दियों पहले भारतीय वैदिक साहित्य में गणतंत्र, लोकतंत्र और राष्ट्र के भौगोलिक, भू-सांस्कृतिक, भू-राजनीतिक और संप्रभु शासन की उन्नत चर्चाएँ संकलित की गयी। ऋग्वेद में अनेक स्थानों पर, अथर्ववेद में 9वें स्थान पर, ब्राह्मण ग्रंथों में अनेक स्थानों पर गणतंत्र और राष्ट्र के अनेक उल्लेख मिलते हैं।
महाभारत के बाद बौद्ध काल (450 ईसा पूर्व से 450 ईस्वी) में कई गणराज्य आए। पिप्पली वन के मौर्य, कुशीनगर और काशी के मल्ल, कपिलवस्तु के शाक्य, मिथिला के विदेह और वैशाली के लिच्छवी गणराज्य प्रमुख रहे हैं। इसके बाद के काल में, अटल, अराट, मालव और मिसोई गणराज्य प्रमुख थे।
बौद्ध काल के वज्जि, लिच्छवी, वैशाली, बृजक, मल्लका, मडका, सोम बस्ती और कम्बोज जैसे गणराज्य लोकतांत्रिक संघीय व्यवस्था के कुछ उदाहरण हैं। वैशाली में एक राजा का बहुत बड़ा चुनाव हुआ था।
राष्ट्रमंडल देशों जैसे इंग्लैंड, कनाडा, ऑस्ट्रेलिया आदि में, रानी (इंग्लैंड की रानी) राज्य की मुखिया होती है। इसलिए लोकतंत्र होने पर भी और प्रधानमंत्री चुने जाने पर भी उन्हें गणतंत्र नहीं कहा जाता है।
अर्थ- हे राष्ट्र के शासक ! मैंने तुम्हें चुना है। सभा के अंदर आओ, शांत रहो, चंचल मत बनो, मत घबराओ, सब तुम्हें चाहते हैं। आपके द्वारा राज्य को अपवित्र नहीं किया जाना चाहिए।
स्थानीय स्वशासन के लिए नगरों, गाँवों और प्रान्तों में पंचायतें होती थीं। ऐसा लगता है कि इसके लिए भी निर्वाचित राष्ट्रपति की मंजूरी की आवश्यकता थी। ये पंचायतें शायद राष्ट्रपति को हटाने में भी सक्षम थीं। इसके अलावा सीधे तौर पर राष्ट्रपति चुनाव कराना होगा।
अथर्ववेद के मंत्र संख्या 3-4-2 से ऐसा लगता है कि ‘देश में रहने वाले लोग आपके जैसे हैं।’ यह गांव या कस्बा या क्षेत्रीय पंचायत लोगों द्वारा चुनी गई विद्वान परिषदों के रूप में होनी चाहिए।
अर्थ- देश में रहने वाले लोग आपको शासन करने के लिए राष्ट्रपति या प्रतिनिधि के रूप में चुनते हैं। दैवीय पंचदेवी (पंचायतें) आपको चुनती हैं, यानी इन विद्वानों द्वारा किए गए सर्वोत्तम मार्गदर्शन की अनुमति दें।
चुने हुए राजा या राज्य के मुखिया की मातृभूमि को सब कुछ समर्पित करने की शपथ| निर्वाचित मुखिया या राज्य के मुखिया या राजा का चुनाव करने के बाद शपथ लेने की परंपरा भी वैदिक है।
यत्तेभूमे विष्वनामि क्षिप्रं तदापि रोहतु।
मा ते मर्म विमृग्वारि मा ते हृदयमार्देदम॥ (अथर्ववेद 12/1/35)
अर्थ- मैं स्वयं अपनी मातृभूमि की मुक्ति, या दुख-दर्द से मुक्ति के लिए हर तरह के कष्ट सहने को तैयार हूं। इससे कोई फर्क नहीं पड़ता कि वे मुसीबतें कैसे, कहाँ या कब आती है, मैं चिंतित या डरा हुआ नहीं हूँ। इस मातृभूमि की भूमि को बीज बोने, खनिज निकालने, कुएं खोदने, झीलों की खुदाई आदि के लिए कम से कम परेशान किया जाना चाहिए, जिससे इसकी जड़ों को कम से कम नुकसान हो और इसकी पूरी देखभाल हो और जल्द से जल्द इसकी भरपाई हो|
यत्तेभूमे विष्वनामि क्षिप्रं तदापि रोहतु।
मा ते मर्म विमृग्वारि मा ते हृदयमार्देदम॥ (अथर्ववेद 12/1/35)
प्रतिज्ञा तीनों प्रकार की लोकतांत्रिक संस्थाओं के निर्देशों के अनुसार जनहित के साधनों का भी प्रावधान करती है। उदाहरण के लिए, हम, राजा और प्रजा मिलकर तीन सभाएं बनाते हैं, विद्या सभा, धर्म सभा और राज सभा।
अर्थ: हे मनुष्यों ! आपके द्वारा बताए गए सिद्धांतों का पालन करके, अच्छे गुणों और स्वभाव के, सच्चे पुरुषों के राजा, राज सभा, विद्या सभा और धर्म सभा, मैं पूरे राज्य के मामलों को पूरे लोगों के अखंड सुख के अनुरूप चलाऊंगा|
अर्थ: हे मनुष्यों ! आपके द्वारा बताए गए सिद्धांतों का पालन करके, अच्छे गुणों और स्वभाव के, सच्चे पुरुषों के राजा, राज सभा, विद्या सभा और धर्म सभा, मैं पूरे राज्य के मामलों को पूरे लोगों के अखंड सुख के अनुरूप चलाऊंगा|
मंत्र:- तं सभा च समितिश्च सेना च॥ (अथर्ववेद 15/2,9/2)
वैदिक काल के दौरान, राजा या राज्य के निर्वाचित प्रमुख को विभिन्न विधानसभाओं, परिषदों और समितियों द्वारा नियंत्रित किया जाता था। अथर्ववेद के मंत्र 15/9/1-3 के अनुसार राजा को अपने अधीन बैठकें और समितियां बनाना आवश्यक था।
जगद्गुरु शंकराचार्य श्री चंद्रशेखरेंद्र सरस्वती ने अपने निबंध “वेदों में लोकतंत्र” में उत्तरामेरुर के पत्थर के शिलालेखों के संदर्भ में चुनाव कानून पर नया प्रकाश डाला। प्राचीन भारत जिसने इस दुनिया को मानव जीवन के सभी पहलुओं पर ‘ शास्त्र ‘ दिए, ने लोकतंत्र और चुनावों के विषयों पर कुछ बुनियादी सिद्धांतों को प्रतिपादित किया जो आज भी मान्य हैं। सिद्धांत कहे जाने वाले ये मूल सिद्धांत शाश्वत हैं और किसी भी परिवर्तन के अधीन नहीं हैं। समय के साथ विभिन्न मामलों पर मानवीय धारणाएँ बदली हैं लेकिन मानवीय मूल्य वही हैं। लक्ष्य और उद्देश्य बदल गए लेकिन मानव स्वभाव नहीं बदला। आज का संविधान हमारे लिए क्या है, पत्थर के शिलालेख और शिलालेख उन समाजों के लिए थे जो तब अस्तित्व में थे। लेकिन उत्तरमेरुर के अभिलेखों और शिलालेखों में जो कहा गया है वह अब भी सही है। प्राचीन भारत में लोकतांत्रिक सिद्धांतों और चुनाव प्रक्रिया का अस्तित्व आंखें खोलने वाला है।
परमाचार्य ने चोल काल में चुनाव की लोकतांत्रिक प्रक्रिया की विशद व्याख्या की। (1) राजस्व का भुगतान, (2) एक घर का मालिक, (3) आयु सीमा 30-60 के बीच (4) धर्म का ज्ञान, आदि और यह कि निर्वाचित लोगों को गलत तरीकों से संपत्ति अर्जित नहीं करनी चाहिए , कि एक कार्यकाल (एक वर्ष का) के बाद 3 साल के लिए बार और यह कि निर्वाचित किसी भी पहले से चुने गए रिश्तेदार के अनुरूप नहीं होना चाहिए, आज भी आदर्श सिद्धांत हैं।
परमाचार्य ने हिंदू धार्मिक कानूनों और रीति-रिवाजों में लोकतांत्रिक रूप से चुनी हुई सरकार के हस्तक्षेप पर ठीक ही खेद व्यक्त किया। वेदों का उपहास करना आजकल फैशन बन गया है । तब लोकतांत्रिक प्रक्रिया शुद्ध और सरल थी और इसका दुरुपयोग नहीं किया जाता था जैसा कि अब किया जाता है। तब मतदाता शिक्षित थे।
आधुनिक संसदीय लोकतन्त्र की सही समझ के लिए प्राचीन ग्रन्थो का अत्यन्त महत्त्व है। भारतीय लोकतंत्र का सिद्धान्त वेदों की ही देन है। इसको इसी बात से जाना जा सकता है कि 2009 में भारत की सर्वो च्च न्यायालय की एक खण्डपीठ ने आधुनिक हिन्दू विधि की सही समझ के लिए ‘मीमांसा सिद्धान्तों के परिप्रेक्ष्य में ही उसका अवलोकन करने की बात कही है –
“यह बेहद अफसोस की बात है कि हमारे कानून की अदालतों में वकील मैक्सवेल और क्रेज को उद्धृत करते हैं लेकिन कोई भी व्याख्या के मीमांसा सिद्धांतों का उल्लेख नहीं करता है। अधिकांश वकीलों को उनके अस्तित्व के बारे में नहीं सुना होगा। आज हमारे तथाकथित शिक्षित लोग पुरातन महानता के बारे में काफी हद तक अनभिज्ञ हैं। हमारे पूर्वजों की बौद्धिक उपलब्धि और बौद्धिक खजाना जो उन्होंने हमें विरासत में दिया है। अधिकांश मीमांसा सिद्धांत तर्कसंगत और वैज्ञानिक हैं और कानूनी क्षेत्र में उपयोग किए जा सकते हैं।”
न्यायमूर्ति श्री मार्कण्डेय काट्जू
प्रकरण नाम – विजय नारायण धत्ते
17 अगस्त 2009
नेहरू जी के मंत्रिमंडल के एक महत्त्वपूर्ण सदस्य कैलाश नाथ काटजू कश्मीरी मूल के हैं। कैलाश नाथ काटजू के पोते Grandson मार्कंडेय (शिव नाथ के पुत्र) ने भारत के सर्वोच्च न्यायालय में न्यायाधीश के रूप में कार्य किया है।
प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने भारतीय लोकतंत्र की प्राचीन जड़ों के बारे में चर्चा करते हुए july 2022 में कहा, भारत में लोकतंत्र की अवधारणा उतनी ही प्राचीन है जितना प्राचीन ये राष्ट्र:
“दशकों से हमें ये बताने की कोशिश होती रही है कि भारत को लोकतन्त्र विदेशी हुकूमत और विदेशी सोच के कारण मिला है। लेकिन, कोई भी व्यक्ति जब ये कहता है तो वो बिहार के इतिहास और बिहार की विरासत पर पर्दा डालने की कोशिश करता है। जब दुनिया के बड़े भूभाग सभ्यता और संस्कृति की ओर अपना पहला कदम बढ़ा रहे थे, तब वैशाली में परिष्कृत लोकतन्त्र का संचालन हो रहा था।
जब दुनिया के अन्य क्षेत्रों में जनतांत्रिक अधिकारों की समझ विकसित होनी शुरू हुई थी, तब लिच्छवी और वज्जीसंघ जैसे गणराज्य अपने शिखर पर थे।
प्रधानमंत्री ने विस्तारपूर्वक बताया,“भारत में लोकतन्त्र की अवधारणा उतनी ही प्राचीन है जितना प्राचीन ये राष्ट्र है, जितनी प्राचीन हमारी संस्कृति है। भारत लोकतन्त्र को समता और समानता का माध्यम मानता है। भारत सह अस्तित्व और सौहार्द के विचार में भरोसा करता है। हम सत् में भरोसा करते हैं, सहकार में भरोसा करते हैं, सामंजस्य में भरोसा करते हैं और समाज की संगठित शक्ति में भरोसा करते हैं।”
प्रधानमंत्री ने भारतीय लोकतंत्र की प्राचीन जड़ों के बारे में चर्चा करते हुए कहा,”दशकों से हमें ये बताने की कोशिश होती रही है कि भारत को लोकतन्त्र विदेशी हुकूमत और विदेशी सोच के कारण मिला है। लेकिन, कोई भी व्यक्ति जब ये कहता है तो वो बिहार के इतिहास और बिहार की विरासत पर पर्दा डालने की कोशिश करता है। जब दुनिया के बड़े भूभाग सभ्यता और संस्कृति की ओर अपना पहला कदम बढ़ा रहे थे, तब वैशाली में परिष्कृत लोकतन्त्र का संचालन हो रहा था। जब दुनिया के अन्य क्षेत्रों में जनतांत्रिक अधिकारों की समझ विकसित होनी शुरू हुई थी, तब लिच्छवी और वज्जीसंघ जैसे गणराज्य अपने शिखर पर थे।
प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने विस्तारपूर्वक बताया,“भारत में लोकतन्त्र की अवधारणा उतनी ही प्राचीन है जितना प्राचीन ये राष्ट्र है, जितनी प्राचीन हमारी संस्कृति है। भारत लोकतन्त्र को समता और समानता का माध्यम मानता है। भारत सह अस्तित्व और सौहार्द के विचार में भरोसा करता है। हम सत् में भरोसा करते हैं, सहकार में भरोसा करते हैं, सामंजस्य में भरोसा करते हैं और समाज की संगठित शक्ति में भरोसा करते हैं।”
21वीं सदी की बदलती जरूरतों और स्वतंत्रता के 75वें वर्ष में नए भारत के संकल्पों के संदर्भ में, प्रधानमंत्री ने कहा,”देश के सांसद के रूप में, राज्य के विधायक के रूप में हमारी ये भी ज़िम्मेदारी है कि हम लोकतंत्र के सामने आ रही हर चुनौती को मिलकर हराएं। पक्ष विपक्ष के भेद से ऊपर उठकर, देश के लिए, देशहित के लिए हमारी आवाज़ एकजुट होनी चाहिए।”
इस बात पर जोर देते हुए कि “हमारे देश की लोकतांत्रिक परिपक्वता हमारे आचरण से प्रदर्शित होती है”, प्रधानमंत्री ने कहा कि “विधानसभाओं के सदनों को जनता से संबंधित विषयों पर सकारात्मक बातचीत का केंद्र बनने दें।” संसद के कार्य निष्पादन पर उन्होंने कहा, “पिछले कुछ वर्षों में संसद में सांसदों की उपस्थिति और संसद की उत्पादकता में रिकॉर्ड वृद्धि हुई है। पिछले बजट सत्र में भी लोकसभा की उत्पादकता 129 प्रतिशत थी। राज्य सभा में भी 99 प्रतिशत उत्पादकता दर्ज की गई। यानी देश लगातार नए संकल्पों पर काम कर रहा है, लोकतांत्रिक विमर्श को आगे बढ़ा रहा है।”
21वीं सदी को भारत की सदी के रूप में चिह्नित करते हुए प्रधानमंत्री ने कहा, “भारत के लिए ये सदी कर्तव्यों की सदी है। हमें इसी सदी में, अगले 25 सालों में नए भारत के स्वर्णिम लक्ष्य तक पहुंचना है। इन लक्ष्यों तक हमें हमारे कर्तव्य ही लेकर जाएंगे। इसलिए, ये 25 साल देश के लिए कर्तव्य पथ पर चलने के साल हैं।” श्री मोदी ने विस्तार से कहा, “हमें अपने कर्तव्यों को अपने अधिकारों से अलग नहीं मानना चाहिए। हम अपने कर्तव्यों के लिए जितना परिश्रम करेंगे, हमारे अधिकारों को भी उतना ही बल मिलेगा। हमारी कर्तव्य निष्ठा ही हमारे अधिकारों की गारंटी है।”
“लोकतंत्र संसार का वह रूप है, जिसमें प्रशासकीय वर्ग सम्पूर्ण राष्ट्र का बहुत बड़ा भाग
होता है”लोकतंत्र/जनतंत्र/प्रजातंत्र में राजनीतिक तंत्र एवं सामाजिक संगठन के समन्वय से
व्यक्ति विशेष, समाज एवं राष्ट्र तीनों का विकास संभव होता है। इस परिप्रेक्ष्य
में प्राचीन भारत में जनतंत्र इन उद्देश्यों के माध्यम से स्थापित था।
प्राचीन भारत में इसे जन, जनतंत्र (राजनीतिक व्यवस्था), जनतांत्रिक तत्त्व
(सभा, समिति आदि), एवं नागरिकों के मौलिक अधिकार के रूप में देखा जा
सकता है। ऋग्वेद के पंचजनाः (पुर, यदु, तुर्वसु, अनु, द्रुह्यु) के
अतिरिक्त भी अनेक जनों का उल्लेख प्राप्त होता है, जो यह स्पष्ट रूप से
इंगित करता है कि वैदिक आर्य अनेक जनों में विभक्त थे और इन्हीं जनों में
आगे चलकर एक स्थान पर बस जाने के कारण जनपदों और राज्यों की
स्थापना हुई। जन के सदस्यों को राजा चुनने और वरण करने का भी
अधिकार प्राप्त था। अर्थात् यदि एक ओर उनकी व्यक्तिगत स्वतंत्रता महत्वपूर्ण
थी तो साथ ही वह प्रशासन की एक इकाई के रूप में भी परस्पर मिल कर
कार्य करते थे।* अथर्ववेद के एक मंत्र में उन्हें ‘सबन्धून’ कहा गया है। यह विश के सदस्य है, जो
परस्पर मिलकर कार्य करते हैं, अथर्वकिद 5 / 8 / 2.3.
“लोक + तन्त्र”। लोक का अर्थ है जनता तथा तन्त्र का अर्थ है शासन। अत: लोकतंत्र का अर्थ हुआ जनता का राज्य. यह एक ऐसी जीवन पद्धति है जिसमें स्वतंत्रता, समता और बंधुता समाज-जीवन के मूल सिद्धांत होते हैं. अंग्रेजी में लोकतंत्र शब्द को डेमोक्रेसी (Democracy) कहते है। अब्राहम लिंकन के अनुसार लोकतंत्र जनता का, जनता के द्वारा तथा जनता के लिए शासन है।
Demo का अर्थ है common person और cracy का अर्थ है Rules। यदि हम इसे ऐतिहासिक दृष्टिकोण से देखें, तो भारत में लोकतांत्रिक सरकार की व्यवस्था पूर्व-वैदिक काल की है। भारत में प्राचीन काल से ही एक शक्तिशाली लोकतांत्रिक व्यवस्था रही है। इसका प्रमाण प्राचीन साहित्य, सिक्कों और अभिलेखों में मिलता है।
राजा मंत्रियों और विद्वानों से विचार-विमर्श कर ही निर्णय लेने वाली बैठकों और समितियों का उल्लेख ऋग्वेद और अथर्ववेद दोनों में मिलता है। उनमें अलग-अलग विचारधारा के लोग भी कई दलों में बंटे हुए रहते थे और कभी-कभी असहमति के कारण झगड़े भी हो जाते थे।
याज्ञवल्क्य स्मृति में तो सभा मंे निर्वाचित सदस्यों द्वारा राग, द्वेष, लालच अथवा भयवश गलत निर्णय देने पर अपराधी को दिए जाने वाले दण्ड से दुगुने दण्ड का भी प्रावधान है। ख्1,
मनुस्मृति में मनु उल्लेख करते हैं कि न्यायाधीश को धर्मासन पर
बैठकर या खड़े होकर विवादों का निर्णय लेना चाहिए। ख् 2 ,
प्राचीन काल से ही हमारे देश मे गौरवशाली लोकतंत्रीय परम्परा थी। वर्तमान संसदीय प्रणाली की तरह ही प्राचीन समय में परिषदों का निर्माण होता था जो से मिलता-जुलता था। गणराज्य या संघ की नीतियो का संचालन इन्ही परिषदों द्वारा होता था। कई जगह तो सर्वसम्मति होना अनिवार्य भी होता था। किसी भी मुद्दे पर निर्णय होने से पूर्व सदस्यो के बीच खुलकर चर्चा होती थी। पक्ष-विपक्ष में विषय पर जोरदार बहस होती थी। उसके बाद ही सर्वसम्मति से निर्णय का प्रतिपादन किया जाता था। सबकी सहमति नहीं होने पर बहुमत से निर्णय होता था जिसे ‘भूयिसिक्किम’ कहा जाता था। इसके लिए वोटिंग होती थी।
वेदों और स्मृतियों के काल में:-
1. प्रजापति : ऋग्वेद में कहा गया है कि प्रजापति जनता के नेता थे। “हमारी देखभाल करने के लिए आपके अलावा कोई दूसरा सिर नहीं है।” प्रजापते नाथ्वा देतानन्यान्यो। क) परमेश्वर को प्रजापति कहा जाना चाहिए क्योंकि वह लोगों का पिता और मुखिया है।
ख) राजा : राजा का अर्थ है वह जो लोगों का दिल जीत ले। इस प्रकार राजा को प्रजापति के रूप में वर्णित किया गया है।
c) पति : का अर्थ है सिर और प्रजापति का अर्थ है, लोगों का मुखिया।
घ) प्रिया के रक्षक । (लोगों का रक्षक) इस प्रकार राजा शब्द प्रिया से लिया गया है।
ङ) राजा का जन्म से होना आवश्यक नहीं है; वह आचार्य के अनुसार योग्यता से एक हो जाता है। “जन्म से राजा होना ही काफी नहीं है बल्कि उसे ‘ सभ्य ‘ भी होना चाहिए।”
निर्वाचन आयुक्त की भांति इस चुनाव की देख-रेख करने वाला भी
एक अधिकारी ‘शलाकाग्राहक’ होता था। वोट देने हेतु तीन प्रणालिया थीं –
1 गूढ़क (गुप्त रूप से) जिसमें वोट देने वाले व्यक्ति का नाम नहीं लिखा होता था
2 विवृतक (प्रकट रूप से) अर्थात् खुलेआम घोषणा
3 संकर्णजल्पक (शलाकाग्राहक के कान में चुपके से कहना
तीनों में से कोई भी प्रक्रिया अपनाने के लिए सदस्य स्वतंत्र थे।
इस तरह हम पाते हैं कि प्राचीन काल से ही हमारे देश मे ं
गौरवशाली लोकतंत्रीय परम्परा थी तथा आधुनिक काल में प्राप्त
पूर्ण विकसित वृक्ष रूपी लोकतंत्र की जड़ें हमारे प्राचीन काल में ही
थी।
वर्त्तमान जैसे ही प्राचीन काल में भी हमारे देश में सुव्यवस्थित शासन के संचालन हेतु अनेक मंत्रालयों का उल्लेख हमें अर्थशास्त्र, मनुस्मृति, शुक्रनीति, महाभारत आदि में प्राप्त होता है। यजुर्वेद और ब्राह्मण ग्रंंथों में इन्हें ‘रत्नी ‘ कहा गया। महाभारत के अनुसार मंत्रत्रमंडल में 6 मेम्बर
होते थे। मनुके अनुसार इनकी संख्या 7-8 शुक्र के अनुसार 10 होती थी। सभा बडी होती तो उसके मेंबर्स में से कुछ लोगों को मिलाकर एक कार्यकारी समिति निर्वाचित होती थी।
इनके कार्य इस प्रकार थे:-
(1) पुरोहित– यह राजा का गुरु माना जाता था। राजनीति और धर्म दोनों में निपुण व्यक्ति को ही यह पद दिया जाता था।
(2) उपराज (राजप्रतिनिधि)- इसका कार्य राजा की अनुपस्थिति में शासन व्यवस्था का संचालन करना था।
(3) प्रधान– प्रधान अथवा प्रधानमन्त्री, मन्त्रिमण्डल का सबसे महत्वपूर्ण सदस्य था। वह सभी विभागों की देखभाल करता था।
(4) सचिव– वर्तमान के रक्षा मन्त्री की तरह ही इसका काम राज्य की सुरक्षा व्यवस्था सम्बन्धी कार्यों को देखना था।
(5) सुमन्त्र– राज्य के आय-व्यय का हिसाब रखना इसका कार्य था। चाणक्य ने इसको समर्हत्ता कहा।
(6) अमात्य– अमात्य का कार्य सम्पूर्ण राज्य के प्राकृतिक संसाधनों का नियमन करना था।
(7) दूत– वर्तमान काल की इंटेलीजेंसी की तरह दूत का कार्य गुप्तचर विभाग को संगठित करना था। यह राज्य का अत्यन्त महत्वपूर्ण एवं संवेदनशील विभाग माना जाता था।
इनके अलावा भी कई विभाग थे। इतना ही नहीं वर्तमान काल की तरह ही पंचायती व्यवस्था भी हमें अपने देश में देखने को मिलती है। शासन की मूल इकाई गांवों को ही माना गया था। प्रत्येक गाँव में एक ग्राम-सभा होती थी। जो गाँव की प्रशासन व्यवस्था, न्याय व्यवस्था से लेकर गाँव के प्रत्येक कल्याणकारी काम को अंजाम देती थी। इनका कार्य गाँव की प्रत्येक समस्या का निपटारा करना, आर्थिक उन्नति, रक्षा कार्य, समुन्नत शासन व्यवस्था की स्थापना कर एक आदर्श गाँव तैयार करना था। ग्रामसभा के प्रमुख को ग्रामणी कहा जाता था।
सभा बडी होती तो उसके मेंबर्स में से कुछ लोगों को मिलाकर एक कार्यकारी समिति निर्वाचित होती थी। उक्त सभा में युवा एवं वृद्ध हर उम्र के लोग होते थे । उनकी बैठक एक भवन में होती जिसे सभागार ककहा जाता था। देश में कई गणराज्य थे। मौर्य साम्राज्य पतन के पश्चात कुछ नये प्रजातान्त्रिक राज्यों ने जन्म लिया, जैसे यौधेय, मानव और अर्जुनीय आदि।
अम्बष्ठ गणराज्य -पंजाब में स्थित इस गणराज्य ने युद्ध न करके उससे संधि कर ली थी।
अग्रेय (आग्रेय (अगलस्सी, अगिरि, अगेसिनेई) (गणराज्य) – वर्तमान अग्रवाल जाति का विकास इसी गणराज्य से हुआ है। इस गणराज्य ने सिकंदर की सेनाओं का बहादुरी से मुकाबला किया था। जब उन्हें लगा कि वे युद्ध में जीत हासील नहीं कर पायेंगे तब उन्होंने स्वयं अपनी नगरी को जला लिया था। दक्षिण पंजाब का यह एक जनपद, शिबि जनपद के पूर्व भाग में स्थित था । यह देश झंग – मघियाना प्रदेश में बसा हुआ था। अपने देश वापस जाते समय शिबि जनपद के पश्चात् सिकंदर ने इन लोगों के साथ युद्ध किया था। इस आग्रेय गण का प्रवर्तक अग्रसेन था, एवं इनकी प्रधान नगरी का नाम ही अग्रोदक था, जो सतलज नदी के पूर्वदक्षिण में बसी हुई थी। सिकंदर के समय यह गण अत्यंत शक्तिशाली था, एवं ग्रीक लेखको के अनुसार इनकी जिस सेना ने सिकंदर के साथ युद्ध किया था, उसमें चालिस हजार पदाति, एवं तीन हजार अश्वारोंही सैनिक थे।
इन लोगों को जीत कर सिकंदर ने मालव गण के लोगों को जीता था, जिससे प्रतीत होता है कि, ये दोनों गण एक दूसरे के पडोस में थे। महाभारत के कर्णदिग्विजय में भी इन दोनों गणों का एकत्र निर्देश प्राप्त है [म. व. परि. १.२४.६७] ।
गणराज्य या संघ की नीतियों का संचालन इन्हीं परिषदों द्वारा होता था। इसके सदस्यों की संख्या विशाल थी। उस समय के सबसे प्रसिद्ध गणराज्य लिच्छवि की केंद्रीय परिषद में 7,707 सदस्य थे वहीं यौधेय की केंद्रीय परिषद के 5,000 सदस्य थे। वर्तमान संसदीय सत्र की तरह ही परिषदों के अधिवेशन नियमित रूप से होते थे।
हमारे प्राचीन शास्त्र रचियताओं की यह विशेषता है कि वे समझते हैं कि समाज को देश, काल, पात्र के अनुरूप बदलना आवश्यक है। नियम के प्रति दृढ़ता भी आवश्यक है किन्तु उसी नियम में परिवर्तन की गुंजाइश भी आवश्यक है। ऐसा नहीं होने पर शास्त्र जड़ हो जाएगा एवं व्यवस्था में परिवर्तन नहीं हो सकेगा।
अतएव इस सन्दर्भ में राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के प्रमुख मोहन भागवत के 08 अक्टूबर २०२२ के कथन का उल्लेख करना उचित है कि ‘वर्ण’ और ‘जाति’ को पूरी तरह से खत्म कर देना चाहिए। नागपुर में एक पुस्तक विमोचन कार्यक्रम में बोलते हुए उन्होंने कहा कि जाति व्यवस्था की अब कोई प्रासंगिकता नहीं है।
आरएसएस प्रमुख ने कहा कि जो कुछ भी भेदभाव का कारण बनता है, उसे व्यवस्था से बाहर कर देना चाहिए। उन्होंने यह भी कहा कि पिछली पीढ़ियों ने भारत सहित हर जगह गलतियाँ कीं। आगे भागवत ने कहा कि उन गलतियों को स्वीकार करने में कोई दिक्कत नहीं है जो हमारे पूर्वजों ने गलतियाँ की हैं।
द्विसदनीय संसद की शुरुआत वैदिक काल से मानी जा सकती है। इन्द्र का चयन वैदिक काल में भी इन्हीं समितियों के कारण हुआ था। उस समय इंद्र ने एक पद धारण किया था जिसे राजाओं का राजा कहा जाता था।
गणतंत्र शब्द का प्रयोग ऋग्वेद में चालीस बार, अथर्ववेद में 9 बार और ब्राह्मण ग्रंथों में कई बार हुआ है:
भावार्थ : ईश्वर उपदेश करता है कि राजा और प्रजा के पुरुष मिल के सुख प्राप्ति और विज्ञानवृद्धि कारक राज्य के संबंध रूप व्यवहार में तीन सभा अर्थात- विद्यार्य्यसभा, धर्मार्य्य सभा, राजार्य्यसभा नियत करके बहुत प्रकार के समग्र प्रजा संबंधी मनुष्यादि प्राणियों को सब ओर से विद्या, स्वतंत्रता, धर्म, सुशिक्षा और धनादि से अलंकृत करें।
भावार्थ : उस राज धर्म को तीनों सभा संग्रामादि की व्यवस्था और सेना मिलकर पालन करें।
राजा : राजा की निरंकुशता पर लगाम लगाने के लिए ही सभा ओर समिति है जो राजा को पदस्थ और अपदस्थ कर सकती है। वैदिक काल में राजा पद पैतृक था किंतु कभी-कभी संघ द्वारा उसे हटाकर दूसरे का निर्वाचन भी किया जाता था। जो राजा निरंकुश होते थे वे अवैदिक तथा संघ के अधिन नहीं रहने वाले थे। ऐसे राजा के लिए दंड का प्रावधान होता है। राजा ही आज का प्रधान है।
आधुनिक संसदीय लोकतंत्र के कुछ महत्वपूर्ण तथ्य जैसे बहुमत से निर्णय लेना पहले भी प्रचलित थे। वैदिक काल के बाद छोटे-छोटे गणराज्यों का वर्णन मिलता है जिनमें शासन से संबंधित मुद्दों पर चर्चा करने के लिए लोग एकत्रित होते थे।
प्रो. भगवती प्रकाश के पांचजन्य लेख के अनुसार हजारों साल पहले, जब दुनिया में लोग आदिवासियों की तरह रहते थे, उस समय भारत में गणतंत्र, लोकतंत्र जैसे शासन के उन्नत विचारों को वैदिक साहित्य में संकलित किया गया था।
वेदों में राष्ट्र, लोकतंत्र, राज्य के मुखिया या राजा के चुनाव और निर्वाचित निकायों के प्रति उनकी जिम्मेदारी के कई संदर्भ हैं। वेदों, वेदांगों, रामायण, महाभारत, पुराणों, नीति शास्त्रों, सूत्र ग्रंथों, कौटिल्य और कमण्डक आदि में गणतंत्र, सार्वभौम शासन विधान यानी वैश्विक शासन और निर्वाचित प्रतिनिधियों की स्मृति जैसी अवधारणाएँ भी मौजूद हैं।
राजतंत्र के सभी प्राचीन समर्थकों ने राष्ट्र को राज्य धर्म का आधार और गणतंत्र को राज्य धर्म का साधन माना है।
कई सहस्राब्दियों पहले भारतीय वैदिक साहित्य में गणतंत्र, लोकतंत्र और राष्ट्र के भौगोलिक, भू-सांस्कृतिक, भू-राजनीतिक और संप्रभु शासन की उन्नत चर्चाएँ संकलित की गयी। ऋग्वेद में अनेक स्थानों पर, अथर्ववेद में 9वें स्थान पर, ब्राह्मण ग्रंथों में अनेक स्थानों पर गणतंत्र और राष्ट्र के अनेक उल्लेख मिलते हैं।
महाभारत के बाद बौद्ध काल (450 ईसा पूर्व से 450 ईस्वी) में कई गणराज्य आए। पिप्पली वन के मौर्य, कुशीनगर और काशी के मल्ल, कपिलवस्तु के शाक्य, मिथिला के विदेह और वैशाली के लिच्छवी गणराज्य प्रमुख रहे हैं। इसके बाद के काल में, अटल, अराट, मालव और मिसोई गणराज्य प्रमुख थे।
बौद्ध काल के वज्जि, लिच्छवी, वैशाली, बृजक, मल्लका, मडका, सोम बस्ती और कम्बोज जैसे गणराज्य लोकतांत्रिक संघीय व्यवस्था के कुछ उदाहरण हैं। वैशाली में एक राजा का बहुत बड़ा चुनाव हुआ था।
राष्ट्रमंडल देशों जैसे इंग्लैंड, कनाडा, ऑस्ट्रेलिया आदि में, रानी (इंग्लैंड की रानी) राज्य की मुखिया होती है। इसलिए लोकतंत्र होने पर भी और प्रधानमंत्री चुने जाने पर भी उन्हें गणतंत्र नहीं कहा जाता है।
अर्थ- हे राष्ट्र के शासक ! मैंने तुम्हें चुना है। सभा के अंदर आओ, शांत रहो, चंचल मत बनो, मत घबराओ, सब तुम्हें चाहते हैं। आपके द्वारा राज्य को अपवित्र नहीं किया जाना चाहिए।
स्थानीय स्वशासन के लिए नगरों, गाँवों और प्रान्तों में पंचायतें होती थीं। ऐसा लगता है कि इसके लिए भी निर्वाचित राष्ट्रपति की मंजूरी की आवश्यकता थी। ये पंचायतें शायद राष्ट्रपति को हटाने में भी सक्षम थीं। इसके अलावा सीधे तौर पर राष्ट्रपति चुनाव कराना होगा।
अथर्ववेद के मंत्र संख्या 3-4-2 से ऐसा लगता है कि ‘देश में रहने वाले लोग आपके जैसे हैं।’ यह गांव या कस्बा या क्षेत्रीय पंचायत लोगों द्वारा चुनी गई विद्वान परिषदों के रूप में होनी चाहिए।
अर्थ- देश में रहने वाले लोग आपको शासन करने के लिए राष्ट्रपति या प्रतिनिधि के रूप में चुनते हैं। दैवीय पंचदेवी (पंचायतें) आपको चुनती हैं, यानी इन विद्वानों द्वारा किए गए सर्वोत्तम मार्गदर्शन की अनुमति दें।
चुने हुए राजा या राज्य के मुखिया की मातृभूमि को सब कुछ समर्पित करने की शपथ| निर्वाचित मुखिया या राज्य के मुखिया या राजा का चुनाव करने के बाद शपथ लेने की परंपरा भी वैदिक है।
यत्तेभूमे विष्वनामि क्षिप्रं तदापि रोहतु।
मा ते मर्म विमृग्वारि मा ते हृदयमार्देदम॥ (अथर्ववेद 12/1/35)
अर्थ- मैं स्वयं अपनी मातृभूमि की मुक्ति, या दुख-दर्द से मुक्ति के लिए हर तरह के कष्ट सहने को तैयार हूं। इससे कोई फर्क नहीं पड़ता कि वे मुसीबतें कैसे, कहाँ या कब आती है, मैं चिंतित या डरा हुआ नहीं हूँ। इस मातृभूमि की भूमि को बीज बोने, खनिज निकालने, कुएं खोदने, झीलों की खुदाई आदि के लिए कम से कम परेशान किया जाना चाहिए, जिससे इसकी जड़ों को कम से कम नुकसान हो और इसकी पूरी देखभाल हो और जल्द से जल्द इसकी भरपाई हो|
यत्तेभूमे विष्वनामि क्षिप्रं तदापि रोहतु।
मा ते मर्म विमृग्वारि मा ते हृदयमार्देदम॥ (अथर्ववेद 12/1/35)
प्रतिज्ञा तीनों प्रकार की लोकतांत्रिक संस्थाओं के निर्देशों के अनुसार जनहित के साधनों का भी प्रावधान करती है। उदाहरण के लिए, हम, राजा और प्रजा मिलकर तीन सभाएं बनाते हैं, विद्या सभा, धर्म सभा और राज सभा।
अर्थ: हे मनुष्यों ! आपके द्वारा बताए गए सिद्धांतों का पालन करके, अच्छे गुणों और स्वभाव के, सच्चे पुरुषों के राजा, राज सभा, विद्या सभा और धर्म सभा, मैं पूरे राज्य के मामलों को पूरे लोगों के अखंड सुख के अनुरूप चलाऊंगा|
अर्थ: हे मनुष्यों ! आपके द्वारा बताए गए सिद्धांतों का पालन करके, अच्छे गुणों और स्वभाव के, सच्चे पुरुषों के राजा, राज सभा, विद्या सभा और धर्म सभा, मैं पूरे राज्य के मामलों को पूरे लोगों के अखंड सुख के अनुरूप चलाऊंगा|
मंत्र:- तं सभा च समितिश्च सेना च॥ (अथर्ववेद 15/2,9/2)
वैदिक काल के दौरान, राजा या राज्य के निर्वाचित प्रमुख को विभिन्न विधानसभाओं, परिषदों और समितियों द्वारा नियंत्रित किया जाता था। अथर्ववेद के मंत्र 15/9/1-3 के अनुसार राजा को अपने अधीन बैठकें और समितियां बनाना आवश्यक था।
जगद्गुरु शंकराचार्य श्री चंद्रशेखरेंद्र सरस्वती ने अपने निबंध “वेदों में लोकतंत्र” में उत्तरामेरुर के पत्थर के शिलालेखों के संदर्भ में चुनाव कानून पर नया प्रकाश डाला। प्राचीन भारत जिसने इस दुनिया को मानव जीवन के सभी पहलुओं पर ‘ शास्त्र ‘ दिए, ने लोकतंत्र और चुनावों के विषयों पर कुछ बुनियादी सिद्धांतों को प्रतिपादित किया जो आज भी मान्य हैं। सिद्धांत कहे जाने वाले ये मूल सिद्धांत शाश्वत हैं और किसी भी परिवर्तन के अधीन नहीं हैं। समय के साथ विभिन्न मामलों पर मानवीय धारणाएँ बदली हैं लेकिन मानवीय मूल्य वही हैं। लक्ष्य और उद्देश्य बदल गए लेकिन मानव स्वभाव नहीं बदला। आज का संविधान हमारे लिए क्या है, पत्थर के शिलालेख और शिलालेख उन समाजों के लिए थे जो तब अस्तित्व में थे। लेकिन उत्तरमेरुर के अभिलेखों और शिलालेखों में जो कहा गया है वह अब भी सही है। प्राचीन भारत में लोकतांत्रिक सिद्धांतों और चुनाव प्रक्रिया का अस्तित्व आंखें खोलने वाला है।
परमाचार्य ने चोल काल में चुनाव की लोकतांत्रिक प्रक्रिया की विशद व्याख्या की। (1) राजस्व का भुगतान, (2) एक घर का मालिक, (3) आयु सीमा 30-60 के बीच (4) धर्म का ज्ञान, आदि और यह कि निर्वाचित लोगों को गलत तरीकों से संपत्ति अर्जित नहीं करनी चाहिए , कि एक कार्यकाल (एक वर्ष का) के बाद 3 साल के लिए बार और यह कि निर्वाचित किसी भी पहले से चुने गए रिश्तेदार के अनुरूप नहीं होना चाहिए, आज भी आदर्श सिद्धांत हैं।
परमाचार्य ने हिंदू धार्मिक कानूनों और रीति-रिवाजों में लोकतांत्रिक रूप से चुनी हुई सरकार के हस्तक्षेप पर ठीक ही खेद व्यक्त किया। वेदों का उपहास करना आजकल फैशन बन गया है । तब लोकतांत्रिक प्रक्रिया शुद्ध और सरल थी और इसका दुरुपयोग नहीं किया जाता था जैसा कि अब किया जाता है। तब मतदाता शिक्षित थे।