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  • ओम ब्रह्म: निरपेक्ष – सभी अस्तित्व का स्रोत

    ओम ब्रह्म: निरपेक्ष – सभी अस्तित्व का स्रोत

    हिंदू धर्म में, ब्राह्मण Brahman (Sanskritब्रह्मन्) उच्चतम सार्वभौमिक सिद्धांत, ब्रह्मांड में परम वास्तविकता को दर्शाता है। हिंदू दर्शन के प्रमुख विद्यालयों में, यह मौजूद सभी का भौतिक, कुशल, औपचारिक और अंतिम कारण है। यह व्यापक, अनंत, शाश्वत सत्य, चेतना और आनंद है जो बदलता नहीं है, फिर भी सभी परिवर्तनों का कारण है। ब्रह्म एक आध्यात्मिक अवधारणा के रूप में ब्रह्मांड universe में मौजूद सभी में विविधता के पीछे एकल बाध्यकारी एकता को संदर्भित करता है।

    ब्रह्मा (हिंदू देवता), ब्राह्मण Brahman (वेदों में पाठ की एक परत), परब्रह्मण (“सर्वोच्च ब्राह्मण”), ब्राह्मणवाद (धर्म), या ब्राह्मण (वर्ण) के साथ भ्रमित न हों।अन्य उपयोगों के लिए, ब्राह्मण (बहुविकल्पी) देखें।

    ब्राह्मण Brahman एक वैदिक संस्कृत शब्द है, और यह हिंदू धर्म में अवधारणा है, पॉल ड्यूसेन कहते हैं, “रचनात्मक सिद्धांत जो पूरी दुनिया में महसूस किया जाता है”। ब्राह्मण Brahman वेदों में पाया जाने वाला एक महत्वपूर्ण अवधारणा है, और इसकी शुरुआत में व्यापक रूप से चर्चा की गई है। उपनिषद। वेद ब्रह्म को ब्रह्मांडीय सिद्धांत के रूप में अवधारणा देते हैं। उपनिषदों में, इसे सत-चित्त-आनंद (सत्य-चेतना-आनंद) और अपरिवर्तनीय, स्थायी, उच्चतम वास्तविकता के रूप में वर्णित किया गया है।

    ब्राह्मण एक वैदिक संस्कृत शब्द है, और यह हिंदू धर्म में अवधारणा है, पॉल ड्यूसेन कहते हैं, “रचनात्मक सिद्धांत जो पूरी दुनिया में महसूस किया जाता है” ब्राह्मण वेदों में पाया जाने वाला एक महत्वपूर्ण अवधारणा है, और प्रारंभिक उपनिषदों में इसकी व्यापक रूप से चर्चा की गई है [8] वेद ब्रह्मांडीय सिद्धांत के रूप में ब्रह्म की अवधारणा करते हैं। उपनिषदों में, इसे सत-चित-आनंद (सत्य-चेतना-आनंद) और अपरिवर्तनीय, स्थायी, उच्चतम वास्तविकता के रूप में वर्णित किया गया है। https://en.wikipedia.org/wiki/Brahman

    ब्राह्मण Brahman की चर्चा हिंदू ग्रंथों में आत्मान (संस्कृत: आत्मन्), व्यक्तिगत, अवैयक्तिक या परा ब्राह्मण, या दार्शनिक स्कूल के आधार पर इन गुणों के विभिन्न संयोजनों में की गई है। हिंदू धर्म के द्वैतवादी विद्यालयों जैसे कि ईश्वरवादी द्वैत वेदांत में, ब्राह्मण प्रत्येक व्यक्ति में आत्मान (स्वयं) Atman (Self) से अलग है। अद्वैत वेदांत जैसे अद्वैत विद्यालयों में, ब्रह्म का पदार्थ आत्मान के समान है, हर जगह और प्रत्येक जीवित प्राणी के अंदर है, और सभी अस्तित्व में आध्यात्मिक एकता जुड़ी हुई है।

    धरती ही परिवार है (वसुधा एव कुटुम्बकम्) यह वाक्य भारतीय संसद के प्रवेश कक्ष में भी अंकित है।बाद के श्लोक यह कहते हैं कि जिनका कोई लगाव नहीं है वे ब्रह्म Brahman को खोजने के लिए आगे बढ़ते हैं (एक सर्वोच्च, सार्वभौमिक आत्मा जो मूल ब्रह्मांड universe की उत्पत्ति और समर्थन है)। इस श्लोक का संदर्भ इसे एक ऐसे व्यक्ति के गुणों में से एक के रूप में वर्णित करता है जिसने आध्यात्मिक प्रगति के उच्चतम स्तर को प्राप्त कर लिया है, और जो भौतिक संपत्ति के मोह के बिना अपने सांसारिक कर्तव्यों का पालन करने में सक्षम है। पाठ बाद के प्रमुख हिंदू साहित्य में प्रभावशाली रहा है। लोकप्रिय भागवत पुराण, उदाहरण के लिए, हिंदू धर्म में साहित्य की पौराणिक शैली का सबसे अधिक अनुवादित, महा उपनिषद के वसुधैव कुटुम्बकम मैक्सिम को “वैदांतिक विचार का महानतम” कहता है।

    ॐ संस्कृत के तीन अक्षरों आ, औ और म से बना है, जो संयुक्त होने पर ध्वनि ओम् या ओम बनाते हैं।

    ओम (या ओम्) (सुनो (सहायता · जानकारी); संस्कृत: ॐ, ओम्, रोमानीकृत: Ōṃ) हिंदू धर्म में एक पवित्र ध्वनि, शब्दांश, मंत्र या एक आह्वान है। ओम हिंदू धर्म का प्रमुख प्रतीक है। इसे विभिन्न प्रकार से सर्वोच्च निरपेक्षता, चेतना, आत्मान, ब्रह्म या लौकिक दुनिया का सार कहा जाता है। भारतीय परंपराओं में, ओम परमात्मा के एक ध्वनि प्रतिनिधित्व के रूप में कार्य करता है, वैदिक अधिकार का एक मानक और सोटेरियोलॉजिकल सिद्धांतों और प्रथाओं का एक केंद्रीय पहलू है। शब्दांश अक्सर वेदों, उपनिषदों और अन्य हिंदू ग्रंथों के अध्यायों के आरंभ और अंत में पाया जाता है।

    ओम वैदिक कोष में उभरा और इसे सामवेदिक मंत्रों या गीतों का एक संक्षिप्त रूप कहा जाता है। यह पूजा और निजी प्रार्थनाओं के दौरान, शादियों जैसे अनुष्ठानों (संस्कार) के समारोहों में और प्रणव योग जैसे ध्यान और आध्यात्मिक गतिविधियों के दौरान, आध्यात्मिक ग्रंथों के पाठ से पहले और उसके दौरान किया गया एक पवित्र आध्यात्मिक मंत्र है। यह प्राचीन और मध्यकालीन युग की पांडुलिपियों, मंदिरों, मठों और हिंदू धर्म, बौद्ध धर्म, जैन धर्म और सिख धर्म में आध्यात्मिक रिट्रीट में पाए जाने वाले आइकनोग्राफी का हिस्सा है। एक शब्दांश के रूप में, इसे अक्सर स्वतंत्र रूप से या आध्यात्मिक पाठ से पहले और हिंदू धर्म, बौद्ध धर्म और जैन धर्म में ध्यान के दौरान जप किया जाता है। कई अन्य नामों के बीच शब्दांश ओम को ओंकार (ओंकारा) और प्रणव के रूप में भी जाना जाता है।

    ओम हिंदू धर्म का प्रमुख प्रतीक है। इसे विभिन्न प्रकार से सर्वोच्च निरपेक्षता, चेतना, आत्मान का सार कहा जाता है,ब्रह्म, या लौकिक दुनिया । भारतीय परंपराओं में, ओम परमात्मा के एक ध्वनि प्रतिनिधित्व के रूप में कार्य करता है, वैदिक अधिकार का एक मानक और सोटेरियोलॉजिकल सिद्धांतों और प्रथाओं का एक केंद्रीय पहलू है।

    शैव लिंगम, या शिव के चिन्ह को ओम के प्रतीक के साथ चिन्हित है, जबकि वैष्णव तीन ध्वनियों Om की पहचान विष्णु, उनकी पत्नी श्री (लक्ष्मी) और उपासक से बनी त्रिमूर्ति के रूप में करते हैं। ॐ को न तो बनाया जा सकता है और न ही बनाया जा सकता है क्योंकि सृष्टि की रचना ॐ ने ही की है। दरअसल, त्रिदेव (भगवान ब्रह्मा, विष्णु और महेश) और ओम अलग नहीं हैं। लेकिन “ओम” शब्द का अर्थ है तीनों देवताओं की उत्पत्ति।ओम् को वेदों का सार कहा गया है। ध्वनि और रूप से, एयूएम अनंत ब्रह्म (परम वास्तविकता) और पूरे ब्रह्मांड का प्रतीक है । यह शब्दांश ओम वास्तव में ब्रह्म है।

    यह एक शब्द शक्तिशाली और सकारात्मक कंपन उत्पन्न कर सकता है जो आपको पूरे ब्रह्मांड को महसूस करने की अनुमति देता है।ओम (ओम भी लिखा जाता है) योग, हिंदू धर्म और बौद्ध धर्म में पाई जाने वाली सबसे पुरानी और सबसे पवित्र ध्वनि है। ओम न केवल पूरे ब्रह्मांड का प्रतिनिधित्व करता है, जिसे ब्रह्म के रूप में जाना जाता है, इसे सभी सृष्टि का स्रोत भी कहा जाता है। ओम हर समय का प्रतिनिधित्व करता है: अतीत, वर्तमान और भविष्य; और स्वयं समय से परे है।

    Om is made up of three Sanskrit letters, aa, au and ma which, when combined, make the sound Aum or Om. 

    Tags

    Om in Hinduism Buddhism Jainism Sikhism, Source of all existence, Universe, Upanishads, Unity behind diversity, Omkara,
    Brahman denotes single binding,
    Vedic Sanskrit, Atman, Earth is family, Earth is family, Vasudhaiva Kutumbakam, Braman Vishnu Mahesh

    By -Premendra Agrawal @rashtravadind @premendraagrawalind

  • राष्ट्रवाद संकीर्ण नहीं इसका प्रमाण संसद भवन में अंकित सूक्तियां हैं

    राष्ट्रवाद संकीर्ण नहीं इसका प्रमाण संसद भवन में अंकित सूक्तियां हैं

    विश्व इतिहास में भारतीय संस्कृति का वही स्थान एवं महत्व है जो असंख्य द्वीपों के सम्मुख सूर्य का है.” भारतीय संस्कृति अन्य संस्कृतियों से सर्वथा भिन्न तथा अनूठी है. अनेक देशों की संस्कृति समय-समय पर नष्ट होती रही है, किन्तु भारतीय संस्कृति आज भी अपने अस्तित्व में है. इस प्रकार भारतीय संस्कृति सृष्टि के इतिहास में सर्वाधिक प्राचीन है भारतीय संस्कृति की श्रेष्ठता की अनेक पाश्चात्य विद्वानों ने मुक्तकंठ से प्रशंसा की है और कहा है ।

    भारतीय दर्शन, आध्यात्मिक चिंतन और शिक्षा तथा समय-समय पर भारत की धरती पर जन्म लेने वाले उन महापुरुषों, सुधारकों और नवयुग के दीक्षार्थियों के संदेशों ने लोगों से मानवता के व्यापक हित वाली अपनी दैनिक प्रथाओं को अपने व्यवहार को ‘वसुधैव कुटुम्बकम’ के सिद्धांत पर आधारित करने का आग्रह किया। उन्होंने राष्ट्रवाद को अंतर्राष्ट्रीयता का पहला चरण घोषित किया और लोगों को पूरे विश्व की समृद्धि और कल्याण के उद्देश्य से इसे मजबूत करने के लिए प्रेरित किया। इसलिए, भारत की राष्ट्रवाद की अवधारणा संकीर्ण नहीं है, या इसमें इसकी प्रकृति असहिष्णु नहीं है।  जो लोग भारतीय राष्ट्रवाद को संकीर्ण दृष्टिकोण से देखते हैं या इसे अलग-थलग मानते हैं, उन्हें इसकी वास्तविकता को समझना चाहिए। उन्हें इसकी जड़ों में जाना चाहिए। 

    भारत अंतर्राष्ट्रीयता या सार्वभौमिकता के लिए प्रतिबद्ध देश है। यह प्रतिबद्धता हजारों साल पुरानी है और इसे भारत के ‘वसुधैव कुटुम्बकम’ के प्राचीन नारे के माध्यम से अच्छी तरह से स्वीकार और समझा जा सकता है। इसके अतिरिक्त सहस्त्रों वर्ष पुरानी समरसतापूर्ण एवं विकासवादी भारतीय संस्कृति भी अपने पालन-पोषण करने वाले भारतीयों की प्रथाओं द्वारा अन्तर्राष्ट्रीयता के प्रति अपनी वचनबद्धता को स्पष्ट रूप से दोहराती रही है। 

    G 20 लोगो और संसद भवन में अंकित सूक्तियो में वसुधैव कुटुंबकम की झलक

    संसद एक ऐसा स्‍थान है जहाँ राष्‍ट्र के समग्र क्रियाकलापों पर चर्चा होती है और उसकी भवितव्‍यता को रूपाकार प्रदान किया जाता है। इस सम्‍माननीय निकाय के पर्यालोचन प्रकृतिश: सत्‍य एवं साधुत्‍व की उच्‍च परंपराओं द्वारा प्रेरित हैं।

    संसद भवन में अनेक सूक्तियां अंकित हैं जो दोनों सभाओं के कार्य में पथ प्रदर्शन करती हैं और किसी भी आगन्तुक का ध्यान उनकी ओर आकृष्ट हुए बिना नहीं रह सकता।

    भवन के मुख्य द्वार पर एक संस्कृत उद्धरण अंकित है जो हमें राष्ट्र की प्रभुता का स्मरण कराता है जिसका मूर्त प्रतीक संसद है। द्वार संख्या 1 पर निम्न शब्द अंकित हैं:

    लो कद्धारमपावा र्ण ३३
    पश्येम त्वां वयं वेरा ३३३३३
    (
    हुं ) ३३ ज्या यो
    ३२१११ इति।

    (छन्दो. 2/24/8)

    इसका हिन्दी अनुवाद यह है:-

    द्वार खोल दो, लोगों के हित,
    और दिखा दो झांकी।
    जिससे अहो प्राप्ति हो जाए,
    सार्वभौम प्रभुता की।

    (छन्दो. 2/24/8)

    भवन में प्रवेश करने के बाद दाहिनी ओर लिफ्ट संख्या 1 के पास आपको लोक सभा की धनुषाकार बाह्य लॉबी दिखाई देगी। इस लॉबी के ठीक मध्य से एक द्वार आंतरिक लॉबी को जाता है और इसके सामने एक द्वार केन्द्रीय कक्ष को जाता है जहां दर्शक को दो भित्ति लेख दिखाई देंगे।

    आंतरिक लॉबी के द्वार पर द्वार संख्या 1 वाला भित्ति लेख ही दोहराया गया है। मुड़ते ही सेन्ट्रल हॉल के मार्ग के गुम्बद पर अरबी का यह अद्धरण दिखाई देता है जिसका अर्थ यह है कि लोग स्वयं ही अपने भाग्य के निर्माता हैं। वह उद्धरण इस प्रकार है:-

    इन्नलाहो ला युगय्यरो मा बिकौमिन्।
    हत्ता युगय्यरो वा बिन नफसे हुम।।

    एक उर्दू कवि ने इस विचार को इस प्रकार व्यक्त किया है:-

    खुदा ने आज तक उस कौम की हालत नहीं बदली,
    हो जिसको ख्याल खुद अपनी हालत बदलने का।

    लोक सभा चैम्बर के भीतर अध्यक्ष के आसन के ऊपर यह शब्द अंकित है:-

    धर्मचक्रप्रवर्तनाय

    धर्म परायणता के चक्रावर्तन के लिए

    अतीत काल से ही भारत के शासक धर्म के मार्ग को ही आदर्श मानकर उस पर चलते रहे हैं और उसी मार्ग का प्रतीक धर्मचक्र भारत के राष्ट्र ध्वज तथा राज चिह्न पर सुशोभित है।

    जब हम संसद भवन के द्वार संख्या 1 से केन्द्रीय कक्ष की ओर बढ़ते हैं तो उस कक्ष के द्वार के ऊपर अंकित पंचतंत्र के निम्नलिखित संस्कृत श्लोक की ओर हमारा ध्यान आकृष्ट होता है:-

    अयं निजः परोवेति गणना लघुचेतसाम्।
    उदारचरितानां तु वसुधैव कुटुम्बकम्।।

    (पंचतंत्र 5/38)

    हिन्दी में इस श्लोक का अर्थ है:-

    यह निज, यह पर, सोचना,
    संकुचित विचार है।
    उदाराशयों के लिए
    अखिल विश्व परिवार है।

    (पंचतंत्र 5/38)

    अन्य सूक्तियां जिनमें से कुछ स्वर्णाक्षरों में अंकित हैं, लिफ्टों के निकट गुम्बदों पर अंकित हैं। भवन की पहली मंजिल से ये लेख स्पष्टतया दिखायी देते हैं।

    लिफ्ट संख्या 1 के निकटवर्ती गुम्बद पर महाभारत का यह श्लोक अंकित है:-

    सा सभा यत्र सन्ति वृद्धा,
    वृद्धा ते ये वदन्ति धर्मम्।
    धर्म नो यत्र सत्यमस्ति,
    सत्यं तद्यच्छलमभ्युपैति।।

    (महाभारत 5/35/58)

    इसका हिन्दी अनुवाद इस प्रकार है:-

    वह सभा नहीं है जिसमें वृद्ध हों,
    वे वृद्ध नहीं है जो धर्मानुसार बोलें,
    जहां सत्य हो वह धर्म नहीं है,
    जिसमें छल हो वह सत्य नहीं है।

    (महाभारत 5/35/58)

    यह सूक्ति तथा लिफ्ट संख्या 2 के निकटवर्ती गुम्बद का भित्ति लेख दो शाश्वत गुणों – सत्य तथा धर्म पर जोर देते हैं जिनका सभा को पालन करना चाहिए।

    लिफ्ट संख्या 2 के निकटवर्ती गुम्बद पर यह सूक्ति अंकित है:-

    सभा वा प्रवेष्टव्या,
    वक्तव्यं वा समंञ्जसम्।
    अब्रुवन् विब्रुवन वापि,
    नरो भवति किल्विषी।।

    (मनु 8/13)

    इसका हिन्दी अनुवाद इस प्रकार है:-

    कोई व्यक्ति या तो सभा में प्रवेश ही करे अथवा यदि वह ऐसा करे तो उसे वहां धर्मानुसार बोलना चाहिए, क्योंकि बोलने वाला अथवा असत्य बोलने वाला मनुष्य दोनों ही समान रूप से पाप के भागी होते हैं।

    लिफ्ट संख्या 3 के निकटवर्ती गुम्बद पर संस्कृत में यह सूक्ति अंकित है:-

    हीदृशं संवननं,
    त्रिषु लोकेषु विद्यते।
    दया मैत्री भूतेषु,
    दानं मधुरा वाक्।।

    इसका हिन्दी अनुवाद इस प्रकार है:-

    प्राणियों पर दया और उनसे मैत्री भाव, दानशीलता तथा मधु वाणी, इन सबका सामंजस्य एक व्यक्ति में तीनों लोगों में नहीं मिलता।

    लिफ्ट संख्या 4 के निकटवर्ती गुम्बद के संस्कृत के भित्ति लेख में भी अच्छे शासक के गुणों का वर्णन है। भित्ति लेख इस प्रकार है:-

    सर्वदा, स्नान्नृपः प्राज्ञः,
    स्वमते कदाचन।
    सभ्याधिकारिप्रकृति,
    सभासत्सुमते स्थितः।।

    इसका हिन्दी अनुवाद इस प्रकार है:-

    शासक सदा बुद्धिमान होना चाहिए,
    परन्तु उसे स्वेच्छाचारी कदापि नहीं होना चाहिए,
    उसे सब बातों में मंत्रियों की सलाह लेनी चाहिए,
    सभा में बैठना चाहिए और शुभ मंत्रणानुसार चलना चाहिए।

    अन्त में लिफ्ट संख्या 5 के निकटवर्ती गुम्बद पर फारसी का यह भित्ति लेख है:-

    बरी रूवाके जेबर्जद नविश्ता अन्द बेर्ज,
    जुज निकोईअहले करम नख्वाहद् मान्द।।

    इसका हिन्दी अनुवाद इस प्रकार है:-

    इस गौरवपूर्ण मरकत मणि समान भवन में यह स्वर्णाक्षर अंकित हैं। दानशीलों के शुभ कामों के अतिरिक्त और कोई वस्तु शाश्वत् नहीं रहेगी।

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    By – Premendra Agrawal @premendraind @lokshaktiindia