माताभूमिपुत्रोहंपृथिव्या: Earth is my mother

यत् ते मध्यं पृथिवि यच्च नभ्यं, यास्त ऊर्जस्तन्व: संबभूवु: तासु नो धे ह्यभि : पवस्व माता भूमि: पुत्रोऽहं पृथिव्या: पर्जन्य: पिता : पिपर्तु।।

अर्थात् “हे पृथ्वी, यह जो तुम्हारा मध्यभाग है और जो उभरा हुआ ऊधर्वभाग है, ये जो तुम्हारे शरीर के विभिन्न अंग ऊर्जा से भरे हैं, हे पृथ्वी मां, तुम मुझे अपने उसी शरीर में संजो लो और दुलारो कि मैं तो तुम्हारे पुत्र जैसा हूं, तुम मेरी मां हो और पर्जन्य का हम पर पिता के जैसा साया बना रहे” वैदिक ऋषि ने पृथ्वी से जिस प्रकार का रक्त-सम्बन्ध स्थापित किया है, वह इतना विलक्षण और आकर्षक है कि दैहिक माता-पिता से किसी भी प्रकार कम नहीं !”

माता भूमिः पुत्रो अहं पृथिव्याः पर्जन्यः पिता स उ नः पिपर्तु॥

(यह भूमि जहाँ हम जन्म लिए हैं हमारी माता है और हम सब इसके पुत्र हैं। ‘पर्जन्य’ अर्थात मेघ हमारे पिता हैं। और ये दोनों मिल कर हमारा ‘पिपर्तु’ अर्थात पालन करते हैं।)

✍️—अथर्ववेद, १२वां कांड, सूक्त १, १२वीं ऋचा।✍️—अथर्ववेद, १२वां कांड, सूक्त १, १२वीं ऋचा।

ध्यं पृथिवि यच्च नभ्यं यास्त ऊर्जस्तन्वः संबभूवुः

तासु नो धेह्यभि नः पवस्व माता भूमिः पुत्रो अहं पृथिव्याः

पर्जन्यः पिता नः पिपर्तु ॥१२॥

अथर्ववेद के भूमि सूक्त का यह मंत्र पृथ्वी और मानव के बीच में माता और संतान का संबंध स्थापित करता है, इसका अर्थ है कि “हे पृथ्वी आपके भीतर एक पवित्र उर्जा का स्रोत है, हमें उस उर्जा से पवित्र करें, हे पृथ्वी आप मेरी माता हैं और पर्जन्य (वर्षा के देवता) मेरे पिता हैं।”

माता भूमिः पुत्रो अहं पृथिव्याः!!

“पृथ्वी माता सांस भी लेती हैं, वृक्ष हमारी माता के फेफड़े हैं, हम इस धरती माता का आदर करते हैं, और वह हमसे कितना प्रेम करती हैं कि हमारे लिए फल, फूल और अन्न के लिए मिट्टी और खाद देती हैं, हमें जल देती हैं, सब कुछ तो पृथ्वी माता ही देती हैं।”

नमस्ते सदा वत्सले मातृभूमे त्वया हिन्दुभूमे सुखं वर्धितोहम्।
महामङ्गले पुण्यभूमे त्वदर्थे पतत्वेष कायो नमस्ते नमस्ते।।

(हे वात्सल्य मयी मातृ भूमि, तुम्हें सदा प्रणाम करता हूँ। इस मातृभूमि ने अपने बच्चों की तरह प्रेम और स्नेह दिया है। हमें इस सुखपूर्वक हिन्दू भूमि पर में बड़ा हुआ हूँ। यह भूमि मंगलमय और पुण्यभूमि है। इस भूमि के लिए में अपने नश्वर शरीर को मातृभूमि के लिए अर्पण करते हुए इस भूमि को बार बार प्रणाम करता हूँ।)

“हमारे धर्म में पृथ्वी को माता का ही स्थान प्राप्त है, और बार बार हम यह कहते आए हैं कि यह पृथ्वी हमारी माता है और यही कारण था कि पृथ्वी को माता मानने वाला हिन्दू धर्म सहज रूप से वृक्षों को काटने से दूरी बनाता रहा।”

“यही कारण है कि मौर्य काल में भारत में आने वाले यात्री मेगस्थनीज ने युद्ध के विषय में लिखा है कि यदि युद्ध भी हो रहे होते थे, तो भी किसानों को हर प्रकार के खतरों से मुक्त रखा जाता था। सैनिक खेतों में फसलों को नुकसान नहीं पहुंचाते थे और परस्पर युद्ध करने वाले राजा न ही अपने शत्रुओं की भूमि में आग लगते थे और न ही वृक्ष काटते थे!”

“वह पर्यावरण की रक्षा करने के लिए युद्ध के मध्य भी तत्पर रहा करते थे। और अब यह एक वैज्ञानिक शोध में भी यह बात उभर कर आई है कि हमारी पृथ्वी पर ही जीवन नहीं है बल्कि हमारी धरती का अपना मस्तिष्क भी हो सकता है।”

वैज्ञानिकों ने इस विचार को “ग्रहीय बुद्धिमत्ता” का नाम दिया है और जिसमें उन्होंने कहा है:- “यह किसी भी ग्रह की सामूहिक बुद्धि एवं संज्ञात्मक क्षमताओं का वर्णन करता है।”

यह शोध इंटरनेश्नल जर्नल ऑफ एस्ट्रोबायोलोजी में प्रकाशित हुआ है और इस पेपर में वैज्ञानिकों ने दावा किया है कि इस बात के प्रमाण प्राप्त हुए हैं कि “पृथ्वी पर फंगस का एक ऐसा नेटवर्क प्राप्त हुआ है, जो आपस में परस्पर संवाद करते रहते हैं और जिससे यह प्रमाणित होता है कि पृथ्वी पर एक अदृश्य बुद्धिमत्ता उपस्थित है।”

इसमें लिखा है कि “इस ग्रह पर एक संज्ञानात्मक गतिविधि के विविध रूप उपस्थित हैं, (अर्थात वेर्नदस्काई की सांस्कृतिक बायोजियोकेमिकल ऊर्जा)। और यह यहाँ पर किसी भी पशु तंत्रिका प्रणाली के विकसित होने से पहले से और साथ ही होमो-जीनस के उपस्थित होने से भी पहले से उपस्थित है। यदि इस ग्रह के फीडबैक लूप्स का निर्माण करने वाले माइक्रोब्स के प्रति यह कहा जा सकता है कि वह अपने संसार की सभी बातें जानते हैं तो यह भी पूछा जाना उपयोगी है कि यदि यह ज्ञान बड़े पैमाने पर उपस्थित होता है तो जो व्यवहार उभर कर आता है, वह ग्रहीय बुद्धिमत्ता कहा जाता है!”

“भारत में वेदों में न जाने कब से इस पृथ्वी के जीवित होने की बात की जाती रही है। बार बार यह कहा गया कि यह धरती एक जीवंत ग्रह है, जो सांस लेती है, जिसमें से रस उत्पन्न होते हैं।”

अथर्ववेद के भूमिसूक्त में लिखा है:-

यत्ते मध्यं पृथिवि यच्च नभ्यं यास्त ऊर्जस्तन्वः संबभूवुः ।
तासु नो धेह्यभि नः पवस्व माता भूमिः पुत्रो अहं पृथिव्याः ।
पर्जन्यः पिता स उ नः पिपर्तु ॥१२॥

“हे पृथ्वी माता, तेरा जो मध्य भाग है, जो नाभि क्षेत्र है, और जो तेरे शरीर से उत्पन्न रस है, वह सभी हमें प्रदान करें, हमें पवित्र करें! भूमि माता है और मैं इसका पुत्र हूँ, पर्जन्य पिता हैं, वह हमारा पालनपोषण करें!”

और फिर आगे लिखा है
त्वज्जातास्त्वयि चरन्ति मर्त्यास्त्वं बिभर्षि द्विपदस्त्वं चतुष्पदः ।
तवेमे पृथिवि पञ्च मानवा येभ्यो ज्योतिरमृतं मर्त्येभ्य उद्यन्त्सूर्यो रश्मिभिरातनोति ॥१५॥
आप से उत्पन्न हुए प्राणी आप में ही विचरण करते हैं, आप दो पैरों वालों को धारण करने वाली हैं और चार पैर वालों को धारण करती हैं। हे पृथ्वी, सभी मनुष्य तेरे हैं और जिनके लिए उदय होता हुआ सूर्य अपनी किरण से अमृततुल्य प्रकाश फैलाता है!”

पृथ्वी को वैदिक काल से ही हम पृथ्वी को माता क्यों कहते हैंयह डॉ रामवीर सिंह कुशवाह ने भी अपने ब्लॉग में स्पश्ट किया है। 

नमस्ते सदा वत्सले मातृभूमे त्वया हिन्दुभूमे सुखं वर्धितोहम्।
महामङ्गले पुण्यभूमे त्वदर्थे पतत्वेष कायो नमस्ते नमस्ते।।

(हे वात्सल्य मयी मातृ भूमि, तुम्हें सदा प्रणाम करता हूँ। इस मातृभूमि ने अपने बच्चों की तरह प्रेम और स्नेह दिया है। हमें इस सुखपूर्वक हिन्दू भूमि पर में बड़ा हुआ हूँ। यह भूमि मंगलमय और पुण्यभूमि है। इस भूमि के लिए में अपने नश्वर शरीर को मातृभूमि के लिए अर्पण करते हुए इस भूमि को बार बार प्रणाम करता हूँ।)

प्रभो शक्तिमन् हिन्दुराष्ट्राङ्गभूता इमे सादरं त्वां नमामो वयम्।
त्वदीयाय कार्याय बध्दा कटीयम् शुभामाशिषं देहि तत्पूर्तये।।
(हे सर्व शक्तिमान परमेश्वर, इस हिन्दू राष्ट्र के घटक के रूप में मैं तुमको सादर प्रणाम करता हूँ। आपके ही कार्य के लिए हम कटिबद्ध हुवे है। हमें इस कार्य को पूरा करने किये आशीर्वाद दे।)

अजय्यां विश्वस्य देहीश शक्तिं सुशीलं जगद्येन नम्रं भवेत्।
श्रुतं चैव यत्कण्टकाकीर्ण मार्गं स्वयं स्वीकृतं नः सुगं कारयेत्।।
(हमें ऐसी अजेय शक्ति दीजिये कि सारे विश्व मे हमे कोई न जीत सकें और ऐसी नम्रता दें कि पूरा विश्व हमारी विनयशीलता के सामने नतमस्तक हो। यह रास्ता काटों से भरा है, इस कार्य को हमने स्वयँ स्वीकार किया है और इसे सुगम कर
काँटों रहित करेंगे।)

समुत्कर्षनिःश्रेयस्यैकमुग्रं परं साधनं नाम वीरव्रतम्।
तदन्तः स्फुरत्वक्षया ध्येयनिष्ठा हृदन्तः प्रजागर्तु तीव्रानिशम्।।
(ऐसा उच्च आध्यात्मिक सुख और ऐसी महान ऐहिक समृद्धि को प्राप्त करने का एकमात्र श्रेष्ट साधन उग्र वीरव्रत की भावना हमारे अन्दर सदेव जलती रहे। तीव्र और अखंड ध्येय निष्ठा की भावना हमारे अंतःकरण में जलती रहे।)

विजेत्री नः संहता कार्यशक्तिर् विधायास्य धर्मस्य संरक्षणम्।
परं वैभवं नेतुमेतत् स्वराष्ट्रं समर्था भवत्वाशिषा ते भृशम्।।
(आपकी असीम कृपा से हमारी यह विजयशालिनी संघठित कार्यशक्ति हमारे धर्म का सरंक्षण कर इस राष्ट्र को परम वैभव पर ले जाने में समर्थ हो।)

श्री राम अपने भाई लक्ष्मण से कहते हैं:-
नेयं स्वर्णपुरी लङ्का रोचते मम लक्ष्मण।
जननी जन्मभूमिश्च स्वर्गादपि गरीयसी।।

(हे लक्ष्मण! यह स्वर्णपुरी लंका मुझे (अब) अच्छी नहीं लगती। माँ और मातृभूमि स्वर्ग से भी बडे होते है।)