आधुनिक संसदीय लोकतन्त्र की सही समझ के लिए प्राचीन ग्रन्थो का अत्यन्त महत्त्व है। भारतीय लोकतंत्र का सिद्धान्त वेदों की ही देन है। इसको इसी बात से जाना जा सकता है कि 2009 में भारत की सर्वो च्च न्यायालय की एक खण्डपीठ ने आधुनिक हिन्दू विधि की सही समझ के लिए ‘मीमांसा सिद्धान्तों के परिप्रेक्ष्य में ही उसका अवलोकन करने की बात कही है –
“यह बेहद अफसोस की बात है कि हमारे कानून की अदालतों में वकील मैक्सवेल और क्रेज को उद्धृत करते हैं लेकिन कोई भी व्याख्या के मीमांसा सिद्धांतों का उल्लेख नहीं करता है। अधिकांश वकीलों को उनके अस्तित्व के बारे में नहीं सुना होगा। आज हमारे तथाकथित शिक्षित लोग पुरातन महानता के बारे में काफी हद तक अनभिज्ञ हैं। हमारे पूर्वजों की बौद्धिक उपलब्धि और बौद्धिक खजाना जो उन्होंने हमें विरासत में दिया है। अधिकांश मीमांसा सिद्धांत तर्कसंगत और वैज्ञानिक हैं और कानूनी क्षेत्र में उपयोग किए जा सकते हैं।”
न्यायमूर्ति श्री मार्कण्डेय काट्जू
प्रकरण नाम – विजय नारायण धत्ते
17 अगस्त 2009
नेहरू जी के मंत्रिमंडल के एक महत्त्वपूर्ण सदस्य कैलाश नाथ काटजू कश्मीरी मूल के हैं। कैलाश नाथ काटजू के पोते Grandson मार्कंडेय (शिव नाथ के पुत्र) ने भारत के सर्वोच्च न्यायालय में न्यायाधीश के रूप में कार्य किया है।
प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने भारतीय लोकतंत्र की प्राचीन जड़ों के बारे में चर्चा करते हुए july 2022 में कहा, भारत में लोकतंत्र की अवधारणा उतनी ही प्राचीन है जितना प्राचीन ये राष्ट्र:
“दशकों से हमें ये बताने की कोशिश होती रही है कि भारत को लोकतन्त्र विदेशी हुकूमत और विदेशी सोच के कारण मिला है। लेकिन, कोई भी व्यक्ति जब ये कहता है तो वो बिहार के इतिहास और बिहार की विरासत पर पर्दा डालने की कोशिश करता है। जब दुनिया के बड़े भूभाग सभ्यता और संस्कृति की ओर अपना पहला कदम बढ़ा रहे थे, तब वैशाली में परिष्कृत लोकतन्त्र का संचालन हो रहा था।
जब दुनिया के अन्य क्षेत्रों में जनतांत्रिक अधिकारों की समझ विकसित होनी शुरू हुई थी, तब लिच्छवी और वज्जीसंघ जैसे गणराज्य अपने शिखर पर थे।
प्रधानमंत्री ने विस्तारपूर्वक बताया,“भारत में लोकतन्त्र की अवधारणा उतनी ही प्राचीन है जितना प्राचीन ये राष्ट्र है, जितनी प्राचीन हमारी संस्कृति है। भारत लोकतन्त्र को समता और समानता का माध्यम मानता है। भारत सह अस्तित्व और सौहार्द के विचार में भरोसा करता है। हम सत् में भरोसा करते हैं, सहकार में भरोसा करते हैं, सामंजस्य में भरोसा करते हैं और समाज की संगठित शक्ति में भरोसा करते हैं।”
प्रधानमंत्री ने भारतीय लोकतंत्र की प्राचीन जड़ों के बारे में चर्चा करते हुए कहा,”दशकों से हमें ये बताने की कोशिश होती रही है कि भारत को लोकतन्त्र विदेशी हुकूमत और विदेशी सोच के कारण मिला है। लेकिन, कोई भी व्यक्ति जब ये कहता है तो वो बिहार के इतिहास और बिहार की विरासत पर पर्दा डालने की कोशिश करता है। जब दुनिया के बड़े भूभाग सभ्यता और संस्कृति की ओर अपना पहला कदम बढ़ा रहे थे, तब वैशाली में परिष्कृत लोकतन्त्र का संचालन हो रहा था। जब दुनिया के अन्य क्षेत्रों में जनतांत्रिक अधिकारों की समझ विकसित होनी शुरू हुई थी, तब लिच्छवी और वज्जीसंघ जैसे गणराज्य अपने शिखर पर थे।
प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने विस्तारपूर्वक बताया,“भारत में लोकतन्त्र की अवधारणा उतनी ही प्राचीन है जितना प्राचीन ये राष्ट्र है, जितनी प्राचीन हमारी संस्कृति है। भारत लोकतन्त्र को समता और समानता का माध्यम मानता है। भारत सह अस्तित्व और सौहार्द के विचार में भरोसा करता है। हम सत् में भरोसा करते हैं, सहकार में भरोसा करते हैं, सामंजस्य में भरोसा करते हैं और समाज की संगठित शक्ति में भरोसा करते हैं।”
21वीं सदी की बदलती जरूरतों और स्वतंत्रता के 75वें वर्ष में नए भारत के संकल्पों के संदर्भ में, प्रधानमंत्री ने कहा,”देश के सांसद के रूप में, राज्य के विधायक के रूप में हमारी ये भी ज़िम्मेदारी है कि हम लोकतंत्र के सामने आ रही हर चुनौती को मिलकर हराएं। पक्ष विपक्ष के भेद से ऊपर उठकर, देश के लिए, देशहित के लिए हमारी आवाज़ एकजुट होनी चाहिए।”
इस बात पर जोर देते हुए कि “हमारे देश की लोकतांत्रिक परिपक्वता हमारे आचरण से प्रदर्शित होती है”, प्रधानमंत्री ने कहा कि “विधानसभाओं के सदनों को जनता से संबंधित विषयों पर सकारात्मक बातचीत का केंद्र बनने दें।” संसद के कार्य निष्पादन पर उन्होंने कहा, “पिछले कुछ वर्षों में संसद में सांसदों की उपस्थिति और संसद की उत्पादकता में रिकॉर्ड वृद्धि हुई है। पिछले बजट सत्र में भी लोकसभा की उत्पादकता 129 प्रतिशत थी। राज्य सभा में भी 99 प्रतिशत उत्पादकता दर्ज की गई। यानी देश लगातार नए संकल्पों पर काम कर रहा है, लोकतांत्रिक विमर्श को आगे बढ़ा रहा है।”
21वीं सदी को भारत की सदी के रूप में चिह्नित करते हुए प्रधानमंत्री ने कहा, “भारत के लिए ये सदी कर्तव्यों की सदी है। हमें इसी सदी में, अगले 25 सालों में नए भारत के स्वर्णिम लक्ष्य तक पहुंचना है। इन लक्ष्यों तक हमें हमारे कर्तव्य ही लेकर जाएंगे। इसलिए, ये 25 साल देश के लिए कर्तव्य पथ पर चलने के साल हैं।” श्री मोदी ने विस्तार से कहा, “हमें अपने कर्तव्यों को अपने अधिकारों से अलग नहीं मानना चाहिए। हम अपने कर्तव्यों के लिए जितना परिश्रम करेंगे, हमारे अधिकारों को भी उतना ही बल मिलेगा। हमारी कर्तव्य निष्ठा ही हमारे अधिकारों की गारंटी है।”
“लोकतंत्र संसार का वह रूप है, जिसमें प्रशासकीय वर्ग सम्पूर्ण राष्ट्र का बहुत बड़ा भाग
होता है”लोकतंत्र/जनतंत्र/प्रजातंत्र में राजनीतिक तंत्र एवं सामाजिक संगठन के समन्वय से
व्यक्ति विशेष, समाज एवं राष्ट्र तीनों का विकास संभव होता है। इस परिप्रेक्ष्य
में प्राचीन भारत में जनतंत्र इन उद्देश्यों के माध्यम से स्थापित था।
प्राचीन भारत में इसे जन, जनतंत्र (राजनीतिक व्यवस्था), जनतांत्रिक तत्त्व
(सभा, समिति आदि), एवं नागरिकों के मौलिक अधिकार के रूप में देखा जा
सकता है। ऋग्वेद के पंचजनाः (पुर, यदु, तुर्वसु, अनु, द्रुह्यु) के
अतिरिक्त भी अनेक जनों का उल्लेख प्राप्त होता है, जो यह स्पष्ट रूप से
इंगित करता है कि वैदिक आर्य अनेक जनों में विभक्त थे और इन्हीं जनों में
आगे चलकर एक स्थान पर बस जाने के कारण जनपदों और राज्यों की
स्थापना हुई। जन के सदस्यों को राजा चुनने और वरण करने का भी
अधिकार प्राप्त था। अर्थात् यदि एक ओर उनकी व्यक्तिगत स्वतंत्रता महत्वपूर्ण
थी तो साथ ही वह प्रशासन की एक इकाई के रूप में भी परस्पर मिल कर
कार्य करते थे।* अथर्ववेद के एक मंत्र में उन्हें ‘सबन्धून’ कहा गया है। यह विश के सदस्य है, जो
परस्पर मिलकर कार्य करते हैं, अथर्वकिद 5 / 8 / 2.3.
“लोक + तन्त्र”। लोक का अर्थ है जनता तथा तन्त्र का अर्थ है शासन। अत: लोकतंत्र का अर्थ हुआ जनता का राज्य. यह एक ऐसी जीवन पद्धति है जिसमें स्वतंत्रता, समता और बंधुता समाज-जीवन के मूल सिद्धांत होते हैं. अंग्रेजी में लोकतंत्र शब्द को डेमोक्रेसी (Democracy) कहते है। अब्राहम लिंकन के अनुसार लोकतंत्र जनता का, जनता के द्वारा तथा जनता के लिए शासन है।
Demo का अर्थ है common person और cracy का अर्थ है Rules। यदि हम इसे ऐतिहासिक दृष्टिकोण से देखें, तो भारत में लोकतांत्रिक सरकार की व्यवस्था पूर्व-वैदिक काल की है। भारत में प्राचीन काल से ही एक शक्तिशाली लोकतांत्रिक व्यवस्था रही है। इसका प्रमाण प्राचीन साहित्य, सिक्कों और अभिलेखों में मिलता है।
राजा मंत्रियों और विद्वानों से विचार-विमर्श कर ही निर्णय लेने वाली बैठकों और समितियों का उल्लेख ऋग्वेद और अथर्ववेद दोनों में मिलता है। उनमें अलग-अलग विचारधारा के लोग भी कई दलों में बंटे हुए रहते थे और कभी-कभी असहमति के कारण झगड़े भी हो जाते थे।
याज्ञवल्क्य स्मृति में तो सभा मंे निर्वाचित सदस्यों द्वारा राग, द्वेष, लालच अथवा भयवश गलत निर्णय देने पर अपराधी को दिए जाने वाले दण्ड से दुगुने दण्ड का भी प्रावधान है। ख्1,
मनुस्मृति में मनु उल्लेख करते हैं कि न्यायाधीश को धर्मासन पर
बैठकर या खड़े होकर विवादों का निर्णय लेना चाहिए। ख् 2 ,
प्राचीन काल से ही हमारे देश मे गौरवशाली लोकतंत्रीय परम्परा थी। वर्तमान संसदीय प्रणाली की तरह ही प्राचीन समय में परिषदों का निर्माण होता था जो से मिलता-जुलता था। गणराज्य या संघ की नीतियो का संचालन इन्ही परिषदों द्वारा होता था। कई जगह तो सर्वसम्मति होना अनिवार्य भी होता था। किसी भी मुद्दे पर निर्णय होने से पूर्व सदस्यो के बीच खुलकर चर्चा होती थी। पक्ष-विपक्ष में विषय पर जोरदार बहस होती थी। उसके बाद ही सर्वसम्मति से निर्णय का प्रतिपादन किया जाता था। सबकी सहमति नहीं होने पर बहुमत से निर्णय होता था जिसे ‘भूयिसिक्किम’ कहा जाता था। इसके लिए वोटिंग होती थी।
वेदों और स्मृतियों के काल में:-
1. प्रजापति : ऋग्वेद में कहा गया है कि प्रजापति जनता के नेता थे। “हमारी देखभाल करने के लिए आपके अलावा कोई दूसरा सिर नहीं है।” प्रजापते नाथ्वा देतानन्यान्यो। क) परमेश्वर को प्रजापति कहा जाना चाहिए क्योंकि वह लोगों का पिता और मुखिया है।
ख) राजा : राजा का अर्थ है वह जो लोगों का दिल जीत ले। इस प्रकार राजा को प्रजापति के रूप में वर्णित किया गया है।
c) पति : का अर्थ है सिर और प्रजापति का अर्थ है, लोगों का मुखिया।
घ) प्रिया के रक्षक । (लोगों का रक्षक) इस प्रकार राजा शब्द प्रिया से लिया गया है।
ङ) राजा का जन्म से होना आवश्यक नहीं है; वह आचार्य के अनुसार योग्यता से एक हो जाता है। “जन्म से राजा होना ही काफी नहीं है बल्कि उसे ‘ सभ्य ‘ भी होना चाहिए।”
निर्वाचन आयुक्त की भांति इस चुनाव की देख-रेख करने वाला भी
एक अधिकारी ‘शलाकाग्राहक’ होता था। वोट देने हेतु तीन प्रणालिया थीं –
1 गूढ़क (गुप्त रूप से) जिसमें वोट देने वाले व्यक्ति का नाम नहीं लिखा होता था
2 विवृतक (प्रकट रूप से) अर्थात् खुलेआम घोषणा
3 संकर्णजल्पक (शलाकाग्राहक के कान में चुपके से कहना
तीनों में से कोई भी प्रक्रिया अपनाने के लिए सदस्य स्वतंत्र थे।
इस तरह हम पाते हैं कि प्राचीन काल से ही हमारे देश मे ं
गौरवशाली लोकतंत्रीय परम्परा थी तथा आधुनिक काल में प्राप्त
पूर्ण विकसित वृक्ष रूपी लोकतंत्र की जड़ें हमारे प्राचीन काल में ही
थी।
वर्त्तमान जैसे ही प्राचीन काल में भी हमारे देश में सुव्यवस्थित शासन के संचालन हेतु अनेक मंत्रालयों का उल्लेख हमें अर्थशास्त्र, मनुस्मृति, शुक्रनीति, महाभारत आदि में प्राप्त होता है। यजुर्वेद और ब्राह्मण ग्रंंथों में इन्हें ‘रत्नी ‘ कहा गया। महाभारत के अनुसार मंत्रत्रमंडल में 6 मेम्बर
होते थे। मनुके अनुसार इनकी संख्या 7-8 शुक्र के अनुसार 10 होती थी। सभा बडी होती तो उसके मेंबर्स में से कुछ लोगों को मिलाकर एक कार्यकारी समिति निर्वाचित होती थी।
इनके कार्य इस प्रकार थे:-
(1) पुरोहित– यह राजा का गुरु माना जाता था। राजनीति और धर्म दोनों में निपुण व्यक्ति को ही यह पद दिया जाता था।
(2) उपराज (राजप्रतिनिधि)- इसका कार्य राजा की अनुपस्थिति में शासन व्यवस्था का संचालन करना था।
(3) प्रधान– प्रधान अथवा प्रधानमन्त्री, मन्त्रिमण्डल का सबसे महत्वपूर्ण सदस्य था। वह सभी विभागों की देखभाल करता था।
(4) सचिव– वर्तमान के रक्षा मन्त्री की तरह ही इसका काम राज्य की सुरक्षा व्यवस्था सम्बन्धी कार्यों को देखना था।
(5) सुमन्त्र– राज्य के आय-व्यय का हिसाब रखना इसका कार्य था। चाणक्य ने इसको समर्हत्ता कहा।
(6) अमात्य– अमात्य का कार्य सम्पूर्ण राज्य के प्राकृतिक संसाधनों का नियमन करना था।
(7) दूत– वर्तमान काल की इंटेलीजेंसी की तरह दूत का कार्य गुप्तचर विभाग को संगठित करना था। यह राज्य का अत्यन्त महत्वपूर्ण एवं संवेदनशील विभाग माना जाता था।
इनके अलावा भी कई विभाग थे। इतना ही नहीं वर्तमान काल की तरह ही पंचायती व्यवस्था भी हमें अपने देश में देखने को मिलती है। शासन की मूल इकाई गांवों को ही माना गया था। प्रत्येक गाँव में एक ग्राम-सभा होती थी। जो गाँव की प्रशासन व्यवस्था, न्याय व्यवस्था से लेकर गाँव के प्रत्येक कल्याणकारी काम को अंजाम देती थी। इनका कार्य गाँव की प्रत्येक समस्या का निपटारा करना, आर्थिक उन्नति, रक्षा कार्य, समुन्नत शासन व्यवस्था की स्थापना कर एक आदर्श गाँव तैयार करना था। ग्रामसभा के प्रमुख को ग्रामणी कहा जाता था।
सभा बडी होती तो उसके मेंबर्स में से कुछ लोगों को मिलाकर एक कार्यकारी समिति निर्वाचित होती थी। उक्त सभा में युवा एवं वृद्ध हर उम्र के लोग होते थे । उनकी बैठक एक भवन में होती जिसे सभागार ककहा जाता था। देश में कई गणराज्य थे। मौर्य साम्राज्य पतन के पश्चात कुछ नये प्रजातान्त्रिक राज्यों ने जन्म लिया, जैसे यौधेय, मानव और अर्जुनीय आदि।
अम्बष्ठ गणराज्य -पंजाब में स्थित इस गणराज्य ने युद्ध न करके उससे संधि कर ली थी।
अग्रेय (आग्रेय (अगलस्सी, अगिरि, अगेसिनेई) (गणराज्य) – वर्तमान अग्रवाल जाति का विकास इसी गणराज्य से हुआ है। इस गणराज्य ने सिकंदर की सेनाओं का बहादुरी से मुकाबला किया था। जब उन्हें लगा कि वे युद्ध में जीत हासील नहीं कर पायेंगे तब उन्होंने स्वयं अपनी नगरी को जला लिया था। दक्षिण पंजाब का यह एक जनपद, शिबि जनपद के पूर्व भाग में स्थित था । यह देश झंग – मघियाना प्रदेश में बसा हुआ था। अपने देश वापस जाते समय शिबि जनपद के पश्चात् सिकंदर ने इन लोगों के साथ युद्ध किया था। इस आग्रेय गण का प्रवर्तक अग्रसेन था, एवं इनकी प्रधान नगरी का नाम ही अग्रोदक था, जो सतलज नदी के पूर्वदक्षिण में बसी हुई थी। सिकंदर के समय यह गण अत्यंत शक्तिशाली था, एवं ग्रीक लेखको के अनुसार इनकी जिस सेना ने सिकंदर के साथ युद्ध किया था, उसमें चालिस हजार पदाति, एवं तीन हजार अश्वारोंही सैनिक थे।
इन लोगों को जीत कर सिकंदर ने मालव गण के लोगों को जीता था, जिससे प्रतीत होता है कि, ये दोनों गण एक दूसरे के पडोस में थे। महाभारत के कर्णदिग्विजय में भी इन दोनों गणों का एकत्र निर्देश प्राप्त है [म. व. परि. १.२४.६७] ।
गणराज्य या संघ की नीतियों का संचालन इन्हीं परिषदों द्वारा होता था। इसके सदस्यों की संख्या विशाल थी। उस समय के सबसे प्रसिद्ध गणराज्य लिच्छवि की केंद्रीय परिषद में 7,707 सदस्य थे वहीं यौधेय की केंद्रीय परिषद के 5,000 सदस्य थे। वर्तमान संसदीय सत्र की तरह ही परिषदों के अधिवेशन नियमित रूप से होते थे।
हमारे प्राचीन शास्त्र रचियताओं की यह विशेषता है कि वे समझते हैं कि समाज को देश, काल, पात्र के अनुरूप बदलना आवश्यक है। नियम के प्रति दृढ़ता भी आवश्यक है किन्तु उसी नियम में परिवर्तन की गुंजाइश भी आवश्यक है। ऐसा नहीं होने पर शास्त्र जड़ हो जाएगा एवं व्यवस्था में परिवर्तन नहीं हो सकेगा।
अतएव इस सन्दर्भ में राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के प्रमुख मोहन भागवत के 08 अक्टूबर २०२२ के कथन का उल्लेख करना उचित है कि ‘वर्ण’ और ‘जाति’ को पूरी तरह से खत्म कर देना चाहिए। नागपुर में एक पुस्तक विमोचन कार्यक्रम में बोलते हुए उन्होंने कहा कि जाति व्यवस्था की अब कोई प्रासंगिकता नहीं है।
आरएसएस प्रमुख ने कहा कि जो कुछ भी भेदभाव का कारण बनता है, उसे व्यवस्था से बाहर कर देना चाहिए। उन्होंने यह भी कहा कि पिछली पीढ़ियों ने भारत सहित हर जगह गलतियाँ कीं। आगे भागवत ने कहा कि उन गलतियों को स्वीकार करने में कोई दिक्कत नहीं है जो हमारे पूर्वजों ने गलतियाँ की हैं।
द्विसदनीय संसद की शुरुआत वैदिक काल से मानी जा सकती है। इन्द्र का चयन वैदिक काल में भी इन्हीं समितियों के कारण हुआ था। उस समय इंद्र ने एक पद धारण किया था जिसे राजाओं का राजा कहा जाता था।
गणतंत्र शब्द का प्रयोग ऋग्वेद में चालीस बार, अथर्ववेद में 9 बार और ब्राह्मण ग्रंथों में कई बार हुआ है:
त्रीणि राजाना विदथें परि विश्वानि भूषथ: ।।-ऋग्वेद मं-3 सू-38-6
भावार्थ : ईश्वर उपदेश करता है कि राजा और प्रजा के पुरुष मिल के सुख प्राप्ति और विज्ञानवृद्धि कारक राज्य के संबंध रूप व्यवहार में तीन सभा अर्थात- विद्यार्य्यसभा, धर्मार्य्य सभा, राजार्य्यसभा नियत करके बहुत प्रकार के समग्र प्रजा संबंधी मनुष्यादि प्राणियों को सब ओर से विद्या, स्वतंत्रता, धर्म, सुशिक्षा और धनादि से अलंकृत करें।
।। तं सभा च समितिश्च सेना च ।1।– अथर्व–कां-15 अनु-2,9, मं-2
भावार्थ : उस राज धर्म को तीनों सभा संग्रामादि की व्यवस्था और सेना मिलकर पालन करें।
राजा : राजा की निरंकुशता पर लगाम लगाने के लिए ही सभा ओर समिति है जो राजा को पदस्थ और अपदस्थ कर सकती है। वैदिक काल में राजा पद पैतृक था किंतु कभी-कभी संघ द्वारा उसे हटाकर दूसरे का निर्वाचन भी किया जाता था। जो राजा निरंकुश होते थे वे अवैदिक तथा संघ के अधिन नहीं रहने वाले थे। ऐसे राजा के लिए दंड का प्रावधान होता है। राजा ही आज का प्रधान है।
आधुनिक संसदीय लोकतंत्र के कुछ महत्वपूर्ण तथ्य जैसे बहुमत से निर्णय लेना पहले भी प्रचलित थे। वैदिक काल के बाद छोटे-छोटे गणराज्यों का वर्णन मिलता है जिनमें शासन से संबंधित मुद्दों पर चर्चा करने के लिए लोग एकत्रित होते थे।
प्रो. भगवती प्रकाश के पांचजन्य लेख के अनुसार हजारों साल पहले, जब दुनिया में लोग आदिवासियों की तरह रहते थे, उस समय भारत में गणतंत्र, लोकतंत्र जैसे शासन के उन्नत विचारों को वैदिक साहित्य में संकलित किया गया था।
वेदों में राष्ट्र, लोकतंत्र, राज्य के मुखिया या राजा के चुनाव और निर्वाचित निकायों के प्रति उनकी जिम्मेदारी के कई संदर्भ हैं। वेदों, वेदांगों, रामायण, महाभारत, पुराणों, नीति शास्त्रों, सूत्र ग्रंथों, कौटिल्य और कमण्डक आदि में गणतंत्र, सार्वभौम शासन विधान यानी वैश्विक शासन और निर्वाचित प्रतिनिधियों की स्मृति जैसी अवधारणाएँ भी मौजूद हैं।
राजतंत्र के सभी प्राचीन समर्थकों ने राष्ट्र को राज्य धर्म का आधार और गणतंत्र को राज्य धर्म का साधन माना है।
कई सहस्राब्दियों पहले भारतीय वैदिक साहित्य में गणतंत्र, लोकतंत्र और राष्ट्र के भौगोलिक, भू-सांस्कृतिक, भू-राजनीतिक और संप्रभु शासन की उन्नत चर्चाएँ संकलित की गयी। ऋग्वेद में अनेक स्थानों पर, अथर्ववेद में 9वें स्थान पर, ब्राह्मण ग्रंथों में अनेक स्थानों पर गणतंत्र और राष्ट्र के अनेक उल्लेख मिलते हैं।
महाभारत के बाद बौद्ध काल (450 ईसा पूर्व से 450 ईस्वी) में कई गणराज्य आए। पिप्पली वन के मौर्य, कुशीनगर और काशी के मल्ल, कपिलवस्तु के शाक्य, मिथिला के विदेह और वैशाली के लिच्छवी गणराज्य प्रमुख रहे हैं। इसके बाद के काल में, अटल, अराट, मालव और मिसोई गणराज्य प्रमुख थे।
बौद्ध काल के वज्जि, लिच्छवी, वैशाली, बृजक, मल्लका, मडका, सोम बस्ती और कम्बोज जैसे गणराज्य लोकतांत्रिक संघीय व्यवस्था के कुछ उदाहरण हैं। वैशाली में एक राजा का बहुत बड़ा चुनाव हुआ था।
राष्ट्रमंडल देशों जैसे इंग्लैंड, कनाडा, ऑस्ट्रेलिया आदि में, रानी (इंग्लैंड की रानी) राज्य की मुखिया होती है। इसलिए लोकतंत्र होने पर भी और प्रधानमंत्री चुने जाने पर भी उन्हें गणतंत्र नहीं कहा जाता है।
आत्वा हर्षिमंतरेधि ध्रुव स्तिष्ठा विचाचलि: विशरत्वा सर्वा वांछतु मात्वधं राष्ट्रमदि भ्रशत। (ऋ. 10-174-1)
अर्थ- हे राष्ट्र के शासक ! मैंने तुम्हें चुना है। सभा के अंदर आओ, शांत रहो, चंचल मत बनो, मत घबराओ, सब तुम्हें चाहते हैं। आपके द्वारा राज्य को अपवित्र नहीं किया जाना चाहिए।
स्थानीय स्वशासन के लिए नगरों, गाँवों और प्रान्तों में पंचायतें होती थीं। ऐसा लगता है कि इसके लिए भी निर्वाचित राष्ट्रपति की मंजूरी की आवश्यकता थी। ये पंचायतें शायद राष्ट्रपति को हटाने में भी सक्षम थीं। इसके अलावा सीधे तौर पर राष्ट्रपति चुनाव कराना होगा।
अथर्ववेद के मंत्र संख्या 3-4-2 से ऐसा लगता है कि ‘देश में रहने वाले लोग आपके जैसे हैं।’ यह गांव या कस्बा या क्षेत्रीय पंचायत लोगों द्वारा चुनी गई विद्वान परिषदों के रूप में होनी चाहिए।
अहमास्मि सहमान उत्तरोनाम भूम्याम्।
अभिषास्मि विष्वाषाडाशामशां विषासहि॥ (अथर्ववेद 12/1/54)
अर्थ- देश में रहने वाले लोग आपको शासन करने के लिए राष्ट्रपति या प्रतिनिधि के रूप में चुनते हैं। दैवीय पंचदेवी (पंचायतें) आपको चुनती हैं, यानी इन विद्वानों द्वारा किए गए सर्वोत्तम मार्गदर्शन की अनुमति दें।
चुने हुए राजा या राज्य के मुखिया की मातृभूमि को सब कुछ समर्पित करने की शपथ| निर्वाचित मुखिया या राज्य के मुखिया या राजा का चुनाव करने के बाद शपथ लेने की परंपरा भी वैदिक है।
यत्तेभूमे विष्वनामि क्षिप्रं तदापि रोहतु।
मा ते मर्म विमृग्वारि मा ते हृदयमार्देदम॥ (अथर्ववेद 12/1/35)
अर्थ- मैं स्वयं अपनी मातृभूमि की मुक्ति, या दुख-दर्द से मुक्ति के लिए हर तरह के कष्ट सहने को तैयार हूं। इससे कोई फर्क नहीं पड़ता कि वे मुसीबतें कैसे, कहाँ या कब आती है, मैं चिंतित या डरा हुआ नहीं हूँ। इस मातृभूमि की भूमि को बीज बोने, खनिज निकालने, कुएं खोदने, झीलों की खुदाई आदि के लिए कम से कम परेशान किया जाना चाहिए, जिससे इसकी जड़ों को कम से कम नुकसान हो और इसकी पूरी देखभाल हो और जल्द से जल्द इसकी भरपाई हो|
यत्तेभूमे विष्वनामि क्षिप्रं तदापि रोहतु।
मा ते मर्म विमृग्वारि मा ते हृदयमार्देदम॥ (अथर्ववेद 12/1/35)
प्रतिज्ञा तीनों प्रकार की लोकतांत्रिक संस्थाओं के निर्देशों के अनुसार जनहित के साधनों का भी प्रावधान करती है। उदाहरण के लिए, हम, राजा और प्रजा मिलकर तीन सभाएं बनाते हैं, विद्या सभा, धर्म सभा और राज सभा।
मंत्र:- त्रीणि राजाना विदथे पुरूणि परि विष्वानि भूषथ: सदासि।
अपश्यमत्र मनसा जगन्वान्व्रते गनवां अपि वायुकेशान॥
(ऋग्वेद 3/38/6)
अर्थ: हे मनुष्यों ! आपके द्वारा बताए गए सिद्धांतों का पालन करके, अच्छे गुणों और स्वभाव के, सच्चे पुरुषों के राजा, राज सभा, विद्या सभा और धर्म सभा, मैं पूरे राज्य के मामलों को पूरे लोगों के अखंड सुख के अनुरूप चलाऊंगा|
मंत्र:- त्रीणि राजाना विदथे पुरूणि परि विष्वानि भूषथ: सदासि।
अपश्यमत्र मनसा जगन्वान्व्रते गनवां अपि वायुकेशान॥
(ऋग्वेद 3/38/6)
अर्थ: हे मनुष्यों ! आपके द्वारा बताए गए सिद्धांतों का पालन करके, अच्छे गुणों और स्वभाव के, सच्चे पुरुषों के राजा, राज सभा, विद्या सभा और धर्म सभा, मैं पूरे राज्य के मामलों को पूरे लोगों के अखंड सुख के अनुरूप चलाऊंगा|
मंत्र:- तं सभा च समितिश्च सेना च॥ (अथर्ववेद 15/2,9/2)
वैदिक काल के दौरान, राजा या राज्य के निर्वाचित प्रमुख को विभिन्न विधानसभाओं, परिषदों और समितियों द्वारा नियंत्रित किया जाता था। अथर्ववेद के मंत्र 15/9/1-3 के अनुसार राजा को अपने अधीन बैठकें और समितियां बनाना आवश्यक था।
जगद्गुरु शंकराचार्य श्री चंद्रशेखरेंद्र सरस्वती ने अपने निबंध “वेदों में लोकतंत्र” में उत्तरामेरुर के पत्थर के शिलालेखों के संदर्भ में चुनाव कानून पर नया प्रकाश डाला। प्राचीन भारत जिसने इस दुनिया को मानव जीवन के सभी पहलुओं पर ‘ शास्त्र ‘ दिए, ने लोकतंत्र और चुनावों के विषयों पर कुछ बुनियादी सिद्धांतों को प्रतिपादित किया जो आज भी मान्य हैं। सिद्धांत कहे जाने वाले ये मूल सिद्धांत शाश्वत हैं और किसी भी परिवर्तन के अधीन नहीं हैं। समय के साथ विभिन्न मामलों पर मानवीय धारणाएँ बदली हैं लेकिन मानवीय मूल्य वही हैं। लक्ष्य और उद्देश्य बदल गए लेकिन मानव स्वभाव नहीं बदला। आज का संविधान हमारे लिए क्या है, पत्थर के शिलालेख और शिलालेख उन समाजों के लिए थे जो तब अस्तित्व में थे। लेकिन उत्तरमेरुर के अभिलेखों और शिलालेखों में जो कहा गया है वह अब भी सही है। प्राचीन भारत में लोकतांत्रिक सिद्धांतों और चुनाव प्रक्रिया का अस्तित्व आंखें खोलने वाला है।
परमाचार्य ने चोल काल में चुनाव की लोकतांत्रिक प्रक्रिया की विशद व्याख्या की। (1) राजस्व का भुगतान, (2) एक घर का मालिक, (3) आयु सीमा 30-60 के बीच (4) धर्म का ज्ञान, आदि और यह कि निर्वाचित लोगों को गलत तरीकों से संपत्ति अर्जित नहीं करनी चाहिए , कि एक कार्यकाल (एक वर्ष का) के बाद 3 साल के लिए बार और यह कि निर्वाचित किसी भी पहले से चुने गए रिश्तेदार के अनुरूप नहीं होना चाहिए, आज भी आदर्श सिद्धांत हैं।
परमाचार्य ने हिंदू धार्मिक कानूनों और रीति-रिवाजों में लोकतांत्रिक रूप से चुनी हुई सरकार के हस्तक्षेप पर ठीक ही खेद व्यक्त किया। वेदों का उपहास करना आजकल फैशन बन गया है । तब लोकतांत्रिक प्रक्रिया शुद्ध और सरल थी और इसका दुरुपयोग नहीं किया जाता था जैसा कि अब किया जाता है। तब मतदाता शिक्षित थे।
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