December 14, 2022: श्री अरबिंदो के सम्मान में स्मारक सिक्का और डाक टिकट जारी
आजादी का अमृत महोत्सव के तत्वावधान में श्री अरबिंदो की 150वीं जयंती के अवसर उनके सम्मान में स्मारक सिक्का और डाक टिकट जारी कर बोले PM Modi, उनका जीवन ‘एक भारत श्रेष्ठ भारत’का प्रतिबिंब।
पीएम मोदी ने कहा कि जब मोटिवेशन और एक्शन एक साथ मिल जाते हैं, तो असंभव प्रतीत होने वाला लक्ष्य भी अवश्यम्भावी रूप से पूर्ण हो जाता है। आज अमृत काल में देश की सफलताएं और सबका प्रयास का संकल्प इसका प्रमाण है। उन्होंने कहा कि श्री अरबिंदो का जीवन ‘एक भारत श्रेष्ठ भारत’ का प्रतिबिंब है, क्योंकि उनका जन्म बंगाल में हुआ और वे गुजराती, बंगाली, मराठी, हिंदी और संस्कृत सहित कई भाषाओं को जानते थे।
इस मौके पर पीएम मोदी ने काशी तमिल संगमम् में भाग लेने के अवसर का भी स्मरण किया। उन्होंने कहा कि यह अद्भुत घटना इस बात का एक बड़ा उदाहरण है कि भारत अपनी संस्कृति और परंपराओं के माध्यम से देश को एक सूत्र में कैसे बांधता है।
प्रधानमंत्री ने कहा कि यह श्री अरबिंदो का जीवन है जो भारत की एक और शक्ति का प्रतीक है, जो पंच प्रण में से एक- “गुलामी की मानसिकता से मुक्ति” है। उन्होंने बताया कि भारी पश्चिमी प्रभाव के बावजूद, श्री अरबिंदो जब भारत लौटे तो जेल में अपने व्यतीत किए गए समय के दौरान वे गीता के संपर्क में आए और वे भारतीय संस्कृति की सबसे तेज आवाज के रूप में उभरे।
राष्ट्रवाद की नई व्याख्या (Aurobindo’s Cultural Nationalism)
सांस्कृतिक राष्ट्रवाद का तात्पर्य है भारतीय संस्कृति, जो आत्मा को हमारी सत्ता के सत्य के रूप में मानती है और हमारे जीवन को आत्मा की अभिवृद्धि एवं विकास के रूप में मानती है। राष्ट्रवाद से अभिप्राय राष्ट्र के नागरिकों का मिलजुलकर रहने की भावना से है , यह एक ऐसी भावना है जो अनेकता में एकता का दर्शन कराती है। मिलजुल कर रहने की प्रवृति प्राचीनकाल से भारतीय संस्कृति में निहित है।
अरविन्द ने लिखा-‘”राष्ट्र क्या है? हमारी मातृभूमि क्या है? वह भूखण्ड नहीं है, वाक्विलास नहीं है और न मन की कोरी कल्पना है। वह महाशक्ति है वो राष्ट्र का निर्माण करने वाली कोटि-कोटि जनता की सामूहिक शक्तियों का समाविष्ट रूप है।” उन्होंने घोषणा की कि राष्ट्रीयता को दबाया नहीं जा सकता, यह तो ईश्वरीय शक्ति की सहायता से निरन्तर बढ़ती रहती है। राष्ट्रीयता अथवा राष्ट्रवाद अजर-अमर है। अरविन्द ने अपने एक भाषण में उन्होंने कहा-“राष्ट्रीयता क्या है? राष्ट्रीयता एक राजनीतिक कार्यक्रम नहीं है, राष्ट्रीयता एक धर्म है जो ईश्वर प्रदत्त है, राष्ट्रीयता एक सिद्धान्त है जिसके अनुसार हमें जीना है । राष्ट्रवादी बनने के लिए राष्ट्रीयता के इस धर्म को स्वीकार करने के लिए हमें धार्मिक भावना का पूर्ण पालन करना होगा। हमें स्मरण रखना चाहिए कि हम निमित्त मात्र हैं, भगवान् के साधन मात्र हैं।”
” राष्ट्रीयता को उन्होंने सामाजिक विकास और राजनीतिक विकास में एक आवश्यक चरण माना था परन्तु अन्तिम अवस्था में उनका आदर्श मानवीय एकता का था। उन्हीं के शब्दों में “अन्तिम परिणाम एक विश्व राज्य की स्थापना ही होना चाहिए। उस विश्व राज्य का सर्वोत्तम रूप स्वतन्त्र राष्ट्रों का ऐसा संघ होगा जिसके अन्तर्गत हर प्रकार की पराधीनता, बल पर आधारित असमानता और दासता का विलोप हो जाएगा। उसमें कुछ राष्ट्रों का स्वाभाविक प्रभाव दूसरों से अधिक हो सकता है किन्तु सबकी परिस्थिति समान होगी।”
अरविंदों का कहना है कि राष्ट्र का उदय अचानक नहीं होता इसके लिए विशेष सभ्यता व सम्मान सांस्कृतिक संस्कृति अनिवार्य होती है, सामान्य विचारों के लोग मिलकर एक वृहद ढांचा बनाते हैं जिससे नियम संहिता विकसित हो जाती है और राजनीतिक एकता का जन्म होता है।
अंतर्राष्ट्रवाद एवं राष्ट्रवाद
राष्ट्रवाद के साथ-साथ अरविंदो अंतर्राष्ट्रवाद में भी विश्वास रखते थे प्रत्येक राज्य को स्वतंत्र होना चाहिए विश्व समुदाय में निर्माणक भूमिका अवसर मिलना चाहिए, उन्होने यूएनओ के अस्तित्व में आने से पहले ही एक विश्व समुदाय एवं विश्व राज की कल्पना कर ली थी अरविंदो की राष्ट्रवाद में अंतर राष्ट्रवाद एवं मानवता समाहित थी।
वे मानते ये कि संसार के सभी मनुष्य एक ही विशाल विश्व चेतना के अंश हैं। इसलिये सभी मनुष्यों में एक आत्मा की अंश है। फिर उनमें संघर्ष या विरोध कैसा? अरविन्द के शब्दों में एक रहस्यमयी चेतना सम्पूर्ण विश्व में व्याप्त है। यह एक दैवी वास्तविकता है। इसने हम सबको एक कर रखा है।
अरविन्द का राष्ट्रवाद किसी भी रूप में कोई संकुचित राष्ट्रवाद नहीं था। अरविन्द कहा था कि “राष्ट्रवाद मानव के सामाजिक तथा राजनीतिक विकास के लिए आवश्यक है। अन्ततोगत्वा एक विश्व संघ के द्वारा मानव की एकता स्थापित होनी चाहिए और इस आदर्श की प्राप्ति के लिए आध्यात्मिक नींव का निर्माण मानव-धर्म और आन्तरिक एकता की भावना के द्वारा ही किया जा सकता है ।
श्री अरविन्द ने संयुक्त राष्ट्र संघ के अस्तित्व में आने से पूर्व ही एक विश्व समुदाय और विश्व राज्य की कल्पना की थी। श्री अरविन्द ने अपनी पुस्तक The Ideal of Human Unity में इस विश्व राज्य का दार्शनिक रूप प्रतिपादित किया और इसकी आवश्यकता पर बल दिया।
राष्ट्रवाद का आध्यात्मिक स्वरूप
सैद्धान्तिक दृष्टि से राष्ट्रवाद एक मनोवैज्ञानिक एव आध्यात्मिक विचार है। यही राष्ट्रवाद की भावना भारतीय संस्कृति के मूल आधार‘वसुधैव कुटुम्ब्कम’ पर आधारित है। वे सास्कृतिक आधार पर भारत की एकता में विश्वास करते हैं, उनका स्वरूप संकुचित अर्थ में धार्मिकता नही है। उनके अनुसार विविधताओं के बावजूद भारतीय इतिहास में एकता का एक अलग न होने वाला वाला सूत्र है। राष्ट्रवाद के सम्बन्ध में श्री अरविन्द का दृष्टिकोण सांस्कृतिक विविधतावादी व समन्यवादी था।
सक्रिय राजनीति के क्षेत्र में वे लगभग 4-5 वर्ष ही रहे, परन्तु इस अल्पावधि में उन्होंने राष्ट्रवाद को वह स्वरूप प्रदान किया जो अन्य कोई व्यक्ति प्रदान नहीं कर सका। प्रारम्भ में वह उन राष्ट्रवाद के प्रणेता बने और बाद में पाँडिचेरी चले जाने के बाद उनका राष्ट्रवाद पूरी तरह आध्यात्मिक धरातल पर प्रतिष्ठित हो गया। लेकिन दोनों ही अवस्थाओं में परस्पर घनिष्ठ सम्बन्ध रहा, अन्तर केवल यह था कि द्वितीय अवस्था आगे चलकर पूरी तरह मुखरित हुई। अरविन्द के लिए उनका राष्ट्र भारत केवल एक भौगोलिक सत्ता या प्राकृतिक भूमि-खण्ड मात्र नहीं था। उन्होंने स्वदेश को माँ माना, माँ के रूप में उसकी भक्ति की, पूजा की। उन्होंने देशवासियों को भारत माता की रक्षा और सेवा के लिए सभी प्रकार के कष्टों को सहने की मार्मिक अपील की।
अरविन्द ने चेतावनी दी कि यदि हम अपना यूरोपीयकरण करेंगे तो हम अपनी आध्यात्मिक क्षमता, अपना बौद्धिक बल, अपनी राष्ट्रीय लचक और आत्म-पुनरुद्धार की शक्ति को सदा के लिए खो बैठेंगे। अरविन्द ने देशवासियों को कहा कि आत्मा में ही शाश्वत शक्ति का निवास है और आत्म-शक्ति के संचार में ‘कठिन’ और ‘असम्भव जैसे शब्द लुप्त हो जायेंगे |
श्री अरविन्द ने “वन्दे मातरम्” में लिखा था- “राष्ट्रवाद क्या है? राष्ट्रवाद केवल राजनीतिक कार्यक्रम नहीं है। राष्ट्रवाद तो एक धर्म है जो ईश्वर के पास से आया है और जिसे लेकर आपको जीवित रहना है। हम सभी लोग ईश्वरीय अंश के साधन हैं। अत: हमे धार्मिक दृष्टि से राष्ट्रवाद का मूल्यांकन करना है।” डॉ. राधाकृष्णन के शब्दों में श्री अरविन्द हमारे युग के सबसे महान बुद्धिजीवी थे। राजनीति व दर्शन के प्रति उनके अमूल्य कार्यों के लिए भारत उनका सदा कृतज्ञ रहेगा’।
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