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राज धर्म: वैदिक काल से अब तक: Raj Dharma: From the Vedic Period to Present

Premendra Agrawal by Premendra Agrawal
January 21, 2023
in Article, General, Politics, Sanskritik Rastravad
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राज धर्म: वैदिक काल से अब तक: Raj Dharma: From the Vedic Period to Present
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16 Aug 2018 : जब भी गुजरात दंगों का जिक्र होता है तो अटल बिहारी वाजपेयी के ‘राजधर्म’ की चर्चा जरूर होती है। एक पत्रकार ने उनसे सवाल किया कि आप मुख्यमंत्री नरेंद्र मोदी के लिए कोई संदेश लेकर आए हैं? इस पर वाजपेयी जी ने अपने उसी चिर-परिचित अंदाज में जवाब दिया, ‘मैं इतना ही कहूंगा, वह राज धर्म का पालन करें। ये शब्द काफी सार्थक हैं। मैं उसी का पालन कर रहा हूं और पालन करने का प्रयास कर रहा हूं। एक राजा या शासक के लिए प्रजा-प्रजा में भेद नहीं हो सकता है, न जन्म के आधार पर, न जाति और संप्रदाय के आधार पर…।’
सुप्रीम कोर्ट ने दी गोधरा कांड में प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी को दी क्लीन चिट ।

पूर्व केंद्रीय मंत्री रविशंकर प्रसाद ने कहा कि उच्चतम न्यायालय के विशेष जांच दल (एसआइटी) द्वारा 2002 के गोधरा दंगा मामले में गुजरात तत्कालीन मुख्यमंत्री व वर्तमान में देश के प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी और 63 अन्य लोगों को क्लीन चिट दिए जाने को चुनौती देने वाली याचिका शुक्रवार को खारिज कर दी। रविशंकर ने बताया कि याचिका गुजरात दंगों में मारे गए कांग्रेस सांसद एहसान जाफरी की पत्नी जकिया जाफरी ने दायर की थी। रविशंकर ने तीस्ता सीतलवाड़ के साथ कांग्रेस, राजद प्रमुख लालू प्रसाद और वामदलों को भी निशाने पर लिया।

9 दिसंबर 2022 गुजरात ने बना दिया इतिहास, बीजेपी को 156 सीटें ही नहीं दी, ये रिकॉर्ड भी बनाया।
गुजरात के चुनावी इतिहास में बीजेपी ने अब तक की सबसे बड़ी और धमाकेदार जीत दर्ज की है. 182 सीटों वाली विधानसभा में बीजेपी ने रिकॉर्ड 156 सीटें जीतकर नया इतिहास रचा है. 182 सीटों वाली विधानसभा में बीजेपी ने रिकॉर्ड 156 सीटें जीतकर नया इतिहास रचा है।

वैदिक राजधर्म व्यवस्था

राजधर्म का अर्थ है – ‘राजा का धर्म’ या ‘राजा का कर्तव्य’। राज वर्ग को देश का संचालन कैसे करना है, इस विद्या का नाम ही ‘राज धर्म’ है। राज धर्म की शिक्षा के मूल वेद हैं।
महाभारत के विदुर प्रजागर तथा शान्ति पर्व, चाणक्य द्वारा रचित प्रसिद्ध ग्रन्थ अर्थशास्त्र आदि में भी राजधर्म की बहुत सी व्याख्या है, स्वामी दयानन्द सरस्वती ने भी सत्यार्थ प्रकाश में एक पूरा समुल्लास राजधर्म पर लिखा है। महाभारत में इसी नाम का एक उपपर्व है जिसमें राजधर्म का विस्तृत विवेचन किया गया है।

मनुस्मृति के ७वें अध्याय में राजधर्म की चर्चा की गयी है।
पुत्र इव पितृगृहे विषये यस्य मानवाः ।
निर्भया विचरिष्यन्ति स राजा राजसत्तम ॥
यथा पुत्रः पितृगृहे विषये यस्य मानवाः ।
निर्भया विचारिष्यन्ति स राजा राजसत्तम् ॥

मनुस्मृति में दण्ड वही राजा व दण्ड प्रजा का शासनकर्त्ता, सब प्रजा का रक्षक, सोते हुए प्रजास्थ मनुष्यों में जागता है, इसी लिये बुद्धिमान लोग दण्ड ही को धर्म कहते हैं। यदि राजा दण्ड को अच्छे प्रकार विचार से धारण करे तो वह सब प्रजा को आनन्दित कर देता है और जो विना विचारे चलाया जाय तो सब ओर से राजा का विनाश कर देता है।

चाणक्य चन्द्रगुप्त मौर्य के महामंत्री थे। वे कौटिल्य या विष्णुगुप्त नाम से भी विख्यात हैं। पिता श्री चणक के पुत्र होने के कारण वह चाणक्य कहे गए। विष्णुगुप्त कूटनीति, अर्थनीति, राजनीति के महाविद्वान ,और अपने महाज्ञान का ‘कुटिल’ ‘सदुपयोग ,जनकल्याण तथा अखंड भारत के निर्माण जैसे सृजनात्मक कार्यो में करने के कारण वह; कौटिल्य’ ‘कहलाये।
कौटिल्य के अर्थशास्त्र में राजधर्म की चर्चा है।
प्रजासुखे सुखं राज्ञः प्रजानां च हिते हितम्।
नात्मप्रियं प्रियं राज्ञः प्रजानां तु प्रियं प्रियम्॥ (अर्थशास्त्र 1/19)

(अर्थात्-प्रजा के सुख में राजा का सुख है, प्रजाके हित में उसका हित है। राजा का अपना प्रिय (स्वार्थ) कुछ नहीं है, प्रजा का प्रिय ही उसका प्रिय है।)
तस्मात् स्वधर्म भूतानां राजा न व्यभिचारयेत्।
स्वधर्म सन्दधानो हि, प्रेत्य चेह न नन्दति॥ (अर्थशास्त्र 1/3)

(अर्थात्- राजा प्रजा को अपने धर्म से विमुख न होने दे। राजा भी अपने धर्म का आचरण करे। जो राजा अपने धर्म का इस भांति आचरण करता है, वह इस लोक और परलोक में सुखी रहता है।) एक राजा का धर्म युध भूमि में अपने दुश्मनों को मारना ही नहीं होता अपितु अपने प्रजा को बचाना भी होता है

मुखर्जी (2013) के अनुसार भारतीय शास्त्रों में सुशासन को राज धर्म कहा गया है। राजधर्म”’आचार संहिता’ या ‘कानून का नियम’ था जो शासक की इच्छा से श्रेष्ठ था और उसके सभी कार्यों को नियंत्रित करता था (कश्यप, 2010)। राजधर्म आचार संहिता अर्थात सुशासन जिसका उल्लेख प्राचीन भारतीय शास्त्रों में संस्कृत और पालि जैसे भगवद गीता , वेद , महाभारत के अलावा शांतिपर्व, नीतिसार , रामायण , अर्थशास्त्र, दीघ निकाय , जातक में भी विशेष रूप से है। सभी नागरिकों का मूल अधिकार सरकार से सुशासन प्राप्त करना है और सरकार बाध्य है इसके लिए।

सर्वे धर्म सोपधर्मस्त्रायणं रण्यो धर्मादिति वेदाचुनोमि
एवम धर्मन् राजधर्मेषु सरवन सर्वस्तम सम्प्रलिनन निबोध

जिसका अर्थ है “सभी धर्म राजधर्म में विलीन हो गए हैं , और इसलिए यह सर्वोच्च धर्म है ” ( महाभारत शांतिपर्व 63, 24-25 )।

अत्रिसंहिता में वर्णित सुशासन के लिए नैतिक व्यवहार और नैतिक मानकों के रूप में राज्य के अनिवार्य कार्यों की आवश्यकता है:
दुष्टस्य दण्ड सुजानस्य पूजा न्यायेन कोषस्य च संप्रविधि
अपेक्षापथोर्तिर्शु राष्ट्ररक्षा पंचैव यज्ञ कथिता नृपन्नम

उक्त श्लोक में पाँच निःस्वार्थ कर्तव्य बताये गए हैं जिन्हें राजा [राज्य] द्वारा किए जाने चाहिए । ( अत्रिसंहिता-28 ).
कौटिल्य ने भी अर्थशास्त्र में उक्त सिद्धांतों को शामिल किया है:
प्रजासुखे सुखं राज्य प्रजानन च हिते हितम्
नातम्प्रियं हितं राज्य प्रजनम तु प्रियं हितम्

अर्थात प्रजा के सुख में राजा का सुख है।

सरकार के साथ साथ नागरिकों के भी कर्तव्य हैं:
राज धर्म और व्यवहारधर्म एक ही सिक्के के दो पहलू हैं, जहां राजा और प्रजा को धर्म का पालन करना होता है- ईमानदारी और कर्तव्यनिष्ठा से जिसके परिणामस्वरूप सुशासन होगा (जोइस, 2017)।

आजादी से पहले राजपथ को किंग्स वे और जनपथ को क्वींस वे के नाम से जाना जाता था। स्वतंत्रता मिलने के बाद क्वींस वे का नाम बदलकर जनपथ कर दिया गया था। जबकि किंग्स वे राजपथ के नाम से जाना जाने लगा। आजादी के 75 वर्ष पूरे होने के बाद अब इसका नाम कर्तव्य पथ कर दिया गया है। केंद्र सरकार का मानना है कि राजपथ से राजा के विचार की झलक मिलती है, जो शासितों पर शासन करता है। जबकि लोकतांत्रिक भारत में जनता सर्वोच्च। नाम में बदलाव जन प्रभुत्व और उसके सशक्तिकरण का एक उदाहरण है।

व्यक्ति को शास्त्रों के अनुसार व्यवहार करना चाहिए ”( भगवद–गीता , अध्याय XVI, श्लोक 24)।

अक्रोध सत्यवचनम संविभाग क्षमा तथा

प्रजना शेषु दारेषु शौचमद्रोह अव च

आर्जवं ब्रुत्यभरणं नवैते सर्ववर्णिका 

“सत्य, क्रोध से मुक्त होना, दूसरों के साथ धन बांटना ( संविभाग ), क्षमा, अकेले अपनी पत्नी से संतानोत्पत्ति (यौन नैतिकता), पवित्रता, शत्रुता का अभाव, सीधापन और स्वयं पर निर्भर व्यक्तियों को बनाए रखना ये नौ नियम हैं।” सभी वर्णों के व्यक्तियों का धर्म ” (महाभारत शांतिपर्व 6-7-8)। 

*

finsindia.org ने धर्मनिरपेक्षता के रूप में धर्म, उच्चतम न्यायालय के रूप में राजा की जिम्मेदारियां, समानता, एकता आदि पर भी प्रकाश डाला है। 

धर्म की सर्वोच्चता

केवल राजशाही का निर्माण पर्याप्त नहीं था, धर्म राजा से श्रेष्ठ एक शक्ति थी, जिसे राजा को लोगों की रक्षा करने और देने में सक्षम बनाने के लिए बनाया गया था। धर्म  की परिभाषा इस प्रकार है : 

तदेतत क्षत्रस्य क्षत्रं युधर्मा, तस्मध धर्मत्परं नास्त्य

अथो अबलियान बलियान समाशमसते धर्मेना, यथा राज्य एवम 

“धर्म  राजाओं का राजा है। धर्म  से श्रेष्ठ कोई नहीं ; राजा की शक्ति से सहायता प्राप्त धर्म कमजोरों को मजबूत पर हावी होने में सक्षम बनाता है ”( बृहदारण्यकोपनिषद 1-4-14)

धर्मनिरपेक्षता के रूप में धर्म :

अपने धर्म का पालन करने के अधिकार को राजा धर्म  में मान्यता दी गई थी पशंदानाइगम श्रेणी पूव्व्रत गणदिशु, संरक्षित्समयं राजा दुर्गे जनपद  (नारद स्मृति ( धर्मकोष P-870)

भारत में जहां वेदों को सर्वोच्च माना जाता था, वेदों में अविश्वासियों को उसी तरह से संरक्षित किया जाना था जैसे वेदों में विश्वास करने वालों को , यह दर्शाता है कि राज धर्म के तहत, धर्म धर्मनिरपेक्ष है (जोइस, 2017)

समानता 

“कोई भी श्रेष्ठ ( अज्यस्तसो ) या हीन ( अकनिष्टस ) नहीं है। सब भाई-भाई हैं ( एते भरतरः )। सभी को सभी के हित के लिए प्रयास करना चाहिए और सामूहिक रूप से प्रगति करनी चाहिए ( सौभाग्य सं व वृद्धु )। (ऋग्वेद मंडल-5, सूक्त-60, मंत्र-5)

“भोजन और पानी की वस्तुओं पर सभी का समान अधिकार है। जीवन रथ का जूआ सबके कंधों पर समान रूप से रखा है। सभी को एक साथ मिलकर एक दूसरे का समर्थन करते हुए रहना चाहिए, जैसे रथ के पहिये की धुरी उसके रिम और हब को जोड़ती है ” (अथर्ववेद–संज्ञान सूक्त)।

रामायण में शासन और समानता: रामराज्य का कोई लिखित संविधान न होने के बावजूद , नागरिकों को समानता का अधिकार प्राप्त था और विकास के रास्ते सभी के लिए खुले थे। कानून की नजर में सब एक समान थे। 

महाभारत में महाभारत में शासन और समानता:

राजा राज्य का प्रमुख होगा और लोगों और उनकी संपत्तियों की रक्षा के लिए जिम्मेदार होगा। स्वामी बोधानंद (2010) शासन के संदर्भ में महाभारत में धर्म का विश्लेषण इस प्रकार करते हैं:

मैं। न्याययुक्त प्रारंभिक धर्म – “ न्याय और निष्पक्षता पर आधारित कोई भी उपक्रम”।

द्वितीय। न तत परस्य समदध्यात् प्रतिकुलम यदत्मनः एश संक्षेपतो धर्मः – “धर्म का अर्थ है दूसरों के साथ ऐसा न करना जो स्वयं के लिए अप्रिय हो” ( महाभारत – अनुसासन पर्व, 113-8)।

महाभारत युद्घ के समाप्त होने के बाद महाराज युधिष्ठिर को भीष्म ने राजधर्म का उपदेश दिया था।

युधिष्ठर को समझाते हुए भीष्म पितामह कहते हैं-

राजन जिन गुणों को आचरण में लाकर राजा उत्कर्ष लाभ करता है, वे गुण छत्तीस हैं। राजा को चाहिए कि वह इन गुणों से युक्त होने का प्रयास करें।

उच्चतम न्यायालय के रूप में राजा की जिम्मेदारियां:

स्मृतियों ने न्याय प्रदान करने के लिए उच्चतम न्यायालय की अध्यक्षता करके न्याय के प्रशासन की जिम्मेदारी लेने वाले राजा की आवश्यकता पर बल दिया ।

हर्माशास्त्रं पुरस्कृत्य प्रदिवावकमते स्तिता,

समाहितमति पश्येत व्यवहारानुक्रमात्   

“राजा को कानून के अनुसार और मुख्य न्यायाधीश की राय का पालन करते हुए बड़ी सावधानी से मामलों की सुनवाई करनी चाहिए” ( नारद स्मृति, 1-35, 24-74, स्मृति चंद्रिका, 66 और 89)।

वेद हमें सत्य बोलने और सदाचार के मार्ग पर चलने की प्रेरणा देते हैं: 

“सत्यम वड़ा! धर्मम चर! – ( तैत्तिरीय उपनिषद, i-II ) 

January 12, 2023 की मीडिया भारत के अनुसार: जगदीप धनखड़ ने साफ शब्दों में कहा कि संसद की कानून बनाने की शक्ति को न्यायपालिका अमान्य नहीं कर सकती। ऐसा देखा जा रहा है कि संसद कानून बनाता है और सुप्रीम कोर्ट उसे रद्द कर देता है। उन्होंने देश के पहले राष्ट्रपति डॉ. राजेंद्र प्रसाद के बयानों का हवाला देते हुए सवाल किया कि क्या संसद द्वारा बनाया गया कानून, तभी कानून का रूप लेगा, जबकि उस पर कोर्ट की मुहर लगेगी। धनखड़ जब राज्यसभा के सभापति का चार्ज लिया था, तब भी उन्होंने कहा था कि न तो कार्यपालिका कानून को देख सकती है, न कोर्ट हस्तक्षेप कर सकती है। संसद के बनाए कानून को किसी आधार पर कोई संस्था अमान्य करती है तो प्रजातंत्र के लिए ठीक नहीं होगा। तब यह कहना मुश्किल होगा कि हम लोकतांत्रिक देश हैं।

1800

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